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________________ १८० आराधना कथाकोश रहूँगा । हाँ और यह तो कहिए कि इससे निकलनेका भी कोई उपाय है क्या ? धनदत्त बोला- यहाँ रस पोनेको प्रतिदिन एक गो आया करती है । तब आज तो वह चली गई । कल सबेरे वह फिर आवेगी सो तुम उसको पूंछ पकड़कर निकल जाना। इतना कहकर वह बोला- अब मुझसे बोला नहीं जाता। मेरे प्राण बड़े संकटमें हैं । चारुदत्तको यह देख बड़ा दुःख हुआ कि वह अपने उपकारीकी कुछ सेवा नहीं कर पाया । उससे और तो कुछ नहीं बना, पर इतना तो उसने तब भी किया कि धनदत्तको पवित्र जिनधर्मका उपदेश देकर, जो कि उत्तम गतिका साधन है, पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास भी लिवा दिया । सबेरा हुआ । सदाको भाँति आज भी गो रस पीनेके लिए आई । रस पीकर जैसे हो वह जाने लगी, चारुदत्तने उसकी पूंछ पकड़ ली। उसके सहारे वह बाहर निकल आया । यहाँसे इस जंगलको लाँघकर यह एक ओर जाने लगा । रास्तेमें इसकी अपने मामा रुद्रदत्त से भेंट हो गई । रुद्रदत्तने चारुदत्तका सब हाल जानकर कहा- तो चलिए अब हम रत्नद्वीपमें चलें । वहाँ अपना मनोरथ अवश्य पूरा होगा । धनकी आशासे ये दोनों अब रत्नद्वीप जानेको तैयार हुए। रत्नद्वीप जानेके लिए पहले एक पर्वतपर जाना पड़ता था और पर्वतपर जानेका जो रास्ता था, वह बहुत सँकरा था । इसलिए पर्वतपर जानेके लिए इन्होंने दो बकरे खरीद किये और उनपर सवार होकर ये रवाना हो गये। जब ये पर्वतपर कुशलपूर्वक पहुँच गये तब पापी रुद्रदत्तने चारुदत्त से कहा- देखो, अब अपनेको यहाँपर इन दोनों बकरोंको मारकर दो चमड़ेकी थैलियाँ बनानी चाहिए और उन्हें उलटकर उनके भीतर घुस दोनोंका मुँह सी लेना चाहिए । मांस के लोभसे यहाँ सदा ही भेरुण्ड-पक्षी आया करते हैं । सो के अपनेको उठा ले जाकर उस पार रत्नद्वीप में ले जायेंगे । वहाँ जब वे हमें खाने लगें तब इन थैलियोंको चीरकर हम बाहर हो जायेंगे। मनुष्य को देखकर पझी उड़ जायेंगे और ऐसा करनेसे बहुत सोधी तरह अपना काम बन जायगा । चारुदत्तने रुद्रदत्तकी पापमयी बात सुनकर उसे बहुत फटकारा और वह साफ इन्कार कर गया कि मुझे ऐसे पाप द्वारा प्राप्त किये धनको जरूरत नहीं । सच है, दयावान् कभी ऐसा अनर्थ नहीं करते । रातको ये दोनों सो गये । चारुदत्तको स्वप्न में भी खयाल न था कि रुद्रदत्त सचमुच इतना नीच होगा और इसीलिए वह निःशंक होकर सो गया था । जब चारुदत्तको खूब गाढ़ी नींद आ गई तब पापो रुद्रदत्त चुपकेसे उठा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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