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________________ नोलीकी कथा १५७ आकर भी जिनधर्मको न छोड़ा था। वह बराबर भगवान्की पूजा, शास्त्रस्वाध्याय, व्रत, उपवास आदि पूण्यकर्म करती थो, धर्मात्माओंसे निष्कपट प्रेम करती थी और पात्रोंको दान देती थी। मतलब यह कि अपने धर्मकर्ममें उसे खुब श्रद्धा थी और भक्तिपूर्वक वह उसे पालती थी। पर खेद है कि समुद्रदत्तकी आँखोंमें नीलोका यह कार्य भी खटका करता था। उसको इच्छा थी कि नीली भी हमारा ही धर्म पालने लगे। और इसके लिए उसने यह सोचकर, कि बुद्ध साधुओंकी संगतिसे या दर्शनसे या उनके उपदेशसे यह अवश्य बुद्धधर्मको मानने लगेगी । एक दिन नीलीसे कहापुत्री, तू पात्रोंको तो सदा दान दिया ही करती है, तब एक दिन अपने धर्मके ही अनुसार बुद्धसाधुओंको भी तो दान दे । नीलीने श्वसुरकी बात मान ली । पर उसे जिनधर्मके साथ उनकी यह ईर्षा ठीक नहीं लगी और इसीलिए उसने कोई ऐसा उपाय भी अपने मनमें सोच लिया, जिससे फिर कभी उससे ऐसा मिथ्या आग्रह किया जाकर उसके धर्मपालन में किसी प्रकारकी बाधा न दी जाय। फिर कुछ दिनों बाद उसने मौका देखकर कुछ बुद्ध साधुओंको भोजनके लिए बुलाया। वे आये । उनका आदर-सत्कार भी हुआ। वे एक अच्छे सुन्दर कमरेमें बैठाये गये। इधर नीलीने उनके जूतोंको एक दासी द्वारा मंगवा लिया और उनका खूब बारीक बूरा बनवाकर उसके द्वारा एक किस्मकी बहत ही बढ़िया मिठाई तैयार करवाई। इसके बाद जब वे साधु भोजन करनेको बैठे तब और-और व्यंजन-मिठाईयोंके साथ वह मिठाई भी उन्हें परोसी गई । सबने उसे बहुत पसन्द किया। भोजन समाप्त हुए बाद जब जानेकी तैयारी हुई, तब वे देखते हैं तो जोड़े नहीं हैं। उन्होंने पूछा-जोड़े कहाँ गये? भीतरसे नोलीने आकर कहा-महाराज, सुनती हूँ, साधु लोग बड़े ज्ञानी होते हैं ? तब क्या आप अपने ही जूतोंका हाल नहीं जानते हैं ? और यदि आपको इतना ज्ञान नहीं तो मैं बतला देती हैं कि जते आपके' पेटमें हैं। विश्वासके लिए आप उल्टी कर देखें । नीलीकी बात सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने उल्टी करके देखा तो उन्हें जूतोंके छोटेछोटे बहुतसे टुकड़े देख पड़े। इससे उन्हें बहुत लज्जित होकर अपने स्थान पर आना पड़ा। नोलीकी इस कार्रवाईसे, अपने गुरुओंके अपमानसे समुद्रदत्त, नीलीको सासु, ननद आदिको बहुत ही गुस्सा आया। पर भूल उनकी जो नीली द्वारा उसके धर्मविरुद्ध कार्य उन्होंने करवाना चाहा। इसलिए वे अपना मन मसोसकर रह गये, नीलीसे वे कुछ नहीं कह सके । पर नीलोको ननदको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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