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________________ १४२ आराधना कथाकोश वसु और नारदको बुद्धि अच्छी थी, सो वे तो थोड़े ही समयमें अच्छे विद्वान् हो गये। रहा पर्वत सो एक तो उसकी बुद्धि ही खराब, उसपर पापके उदयसे उसे कुछ नहीं आता जाता था। अपने पुत्रकी यह हालत देखकर उसकी माताने एक दिन अपने पतिसे गुस्सा होकर कहा-जान पड़ता है, आप बाहरके लड़कोंको तो अच्छी तरह पढ़ाते हैं और खास अपने पुत्र पर आपका ध्यान नहीं है, उसे आप अच्छी तरह नहीं पढ़ाते। इसीलिए उसे इतने दिन तक पढ़ते रहने पर भी कुछ नहीं आया। क्षीरकदम्बने कहाइसमें मेरा कुछ दोष नहीं है । मैं तो सबके साथ एक हीसा श्रम करता हूँ। तुम्हारा पुत्र ही मूर्ख है, पापो है, वह कुछ समझता हो नहीं । बोलो, अब इसके लिए मैं क्या करूँ ? स्वस्तिमतीको इस बात पर विश्वास हो, इसलिए उसने तीनों शिष्योंको बुलाकर कहा-पुत्रों, देखो तुम्हें यह एक-एक पाई दी जाती है, इसे लेकर तुम बाजार जाओ; और अपने बुद्धिबलसे इसके द्वारा चने लेकर खा आओ और पाई पीछी वापिस भी लौटा लाओ। तीनों गये। उनमें पर्वत एक जगहसे चने मोल लेकर और वहीं खा पीकर सूने हाथ घर लौट आया । अब रहे वसु और नारद, सो इन्होंने पहले तो चने मोल लिये और फिर उन्हें इधर-उधर घूमकर बेचा, जब उनकी पाई वसूल हो गई तब बाकी बचे चनोंको खाकर वे लौट आये । आकर उन्होंने गुरुजीकी अमानत उन्हें वापिस सौंप दी। इसके बाद क्षीरकदम्बने एक दिन तीनोंको आटेके बने हुए तीन बकरे देकर उनसे कहा-देखो, इन्हें ले जाकर और जहाँ कोई न देख पाये ऐसे एकान्त स्थानमें इनके कानोंको छेद लाओ। गुरुको आज्ञानुसार तीनों फिर इस नये कामके लिए गये। पर्वतने तो एक जंगल में जाकर बकरेका कान छेद डाला । वसु और नारद बहुत जगह गये, सर्वत्र उन्होंने एकान्त स्थान ढूंढ डाला, पर उन्हें कहीं उनके मनलायक स्थान नहीं मिला । अथवा यों कहिए कि उनके विचारानुसार एकान्त स्थान कोई था ही नहीं। वे जहाँ पहुंचते और मनमें विचार करते वहीं उन्हें चन्द्र, सूर्य, तारा, देव, व्यन्तर, पशु, पक्षी और अवधिज्ञानी मुनि आदि जान पड़ते। वे उस समय यह विचार कर, कि ऐसा के ई स्थान ही नहीं है जहाँ कोई न देखता हो, वापिस घर लौट आये। उन्होंने उन बकरोंके कानोंको नहीं छेदा । आकर उन्होंने गुरुजीको नमस्कार किया और अपना सब हाल उनसे कह सुनाया। सच है-बुद्धि कर्मके अनुसार ही हुआ करती है। उनकी बुद्धिकी इस प्रकार चतुरता देखकर उपाध्यायजीने अपनी प्रियासे कहा-क्यों देखी सबकी बुद्धि और चतुरता ? अब कहो, दोष मेरा या पर्वतके भाग्यका ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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