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________________ आराधना कथाकोश सोमक बालक था और साथ ही बालस्वभावके अनुसार पवित्र हृदयी था । इसलिये उसने झटसे कह दिया कि वह तो मेरे घर में एक खाड़े में गड़ा हुआ है। बेचारी सागरदत्ता अपने बच्चे की दुर्दशा सुनते ही धड़ामसे पृथ्वीपर गिर पड़ी। इतने में सागरदत्त भी वहीं आ पहुँचा । उसने उसे होशमें लाकर उसके मूच्छित हो जानेका कारण पूछा । सागरदत्ताने सोमकका कहा हाल उसे सुना दिया । सागरदत्तने उसी समय दौड़े जाकर यह खबर पुलिसको दी। पुलिसने आकर मृत बच्चेकी लाश सहित गोपायनको गिरफ्तार किया, मुकदमा राजाके पास पहुंचा। उन्होंने गोपायनके कर्मके अनुसार उसे फाँसी की सजा दी । बहुत ठोक कहा हैपापी पापं करोत्यत्र प्रच्छन्नमपि पापतः । तत्प्रसिद्ध भवत्येव भवभ्रमणदायकः ।। - ब्रह्म नेमिदत्त १०० अर्थात् पापी लोग बहुत छुपकर भी पाप करते हैं, पर वह नहीं छुपता और प्रगट हो ही जाता है । और परिणाम में अनन्त कालतक संसार के दुःख भोगना पड़ता है। इसलिये सुख चाहनेवाले पुरुषोंको हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पाप, जो कि दुःखके देनेवाले हैं, छोड़कर सुख देनेवाला दयाधर्मं, जिनधर्म ग्रहण करना उचित है । बालपने में विशेष ज्ञान नहीं होता, इसलिये बालक अपना हिताहित नहीं जान पाता, युवावस्थामें कुछ ज्ञानका विकास होता है, पर काम उसे अपने हितकी ओर नहीं फटकने देता और वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ जर्जर हो जाती हैं, किसी काम करनेमें उत्साह नहीं रहता और न शक्ति हो रहतो है । इसके सिवा और जो अवस्थायें हैं, उनमें कुटुम्ब परिवार के पालनपोषणका भार सिरपर रहने के कारण सदा अनेक प्रकारकी चिन्तायें घेरे रहती हैं कभी स्वस्थचित्त होने ही नहीं पाता, इसलिये तब भी आत्महितका कुछ साधन प्राप्त नहीं होता । आखिर होता यह है कि जैसे पैदा हुए, वैसे ही चल बसते हैं । अत्यन्त कठिनता से प्राप्त हुई मनुष्य पर्यायको समुद्र में रत्न फेंक देने की तरह गँवा बैठते हैं । और प्राप्त करते हैं वहो एक संसारभ्रमण | जिसमें अनन्त काल ठोकरें खाते-खाते बीत गये । पर ऐसा करना उचित नहीं; किन्तु प्रत्येक जीवमात्रको अपने आत्महित की ओर ध्यान देना परमावश्यक है । उन्हें सुख प्रदान करनेवाला जिनधर्म ग्रहणकर शान्तिलाभ करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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