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________________ नागदत्त मुनिको कथा वे विद्वान् हैं, उदार हैं, धर्मात्मा हैं, जिनभगवान् के भक्त हैं और नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करते हैं। उनकी रानीका नाम है प्रियधर्मा । वह भी बड़ी सरल स्वभावको और सुशीला है। उसके दो पुत्र हुए। उनके नाम थे प्रियधर्म और प्रियमित्र । दोनों भाई बड़े बुद्धिमान् और सुवरित थे। किसी कारणसे दोनों भाई संसारसे विरक्त होकर साधु बन गये। और अन्तसमय समाधिमरण कर अच्युतस्वर्ग में जाकर देव हुए। उन्होंने वहाँ परस्परमें प्रतिज्ञा की कि, "जो दोनोंमेंसे पहले मनुष्य पर्याय प्राप्त करे उसके लिये स्वर्गस्थ देवका कर्तव्य होगा कि वह उसे जाकर सम्बोधे और संसारसे विरक्त कर मोक्षसुखकी देनेवाली जिनदीक्षा ग्रहण करनेके लिए उसे उत्साहित करे।” इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे वहाँ सुखसे रहने लगे। उन दोनोंमेंसे प्रियदत्तको आयु पहले पूर्ण हो गई। वह वहाँसे उज्जयिनीके राजा नागधर्मकी प्रिया नागदत्ताके, जो कि बहुत ही सुन्दरी थी, नागदत्त नामक पुत्र हुआ। नागदत्र सर्पोक साथ क्रोड़ा करने में बहत चतुर था, सर्पके साथ उसे विनोद करते देखकर सब लोग बड़ा आश्चर्य प्रगट करते थे। एक दिन प्रियधर्म; जो कि स्वर्ग में नागदत्तका मित्र था, गारुडिका वेष लेकर नागदत्तको सम्बोधनेको उज्जयिनीमें आया। उसके पास दो भयंकर सर्प थे। वह शहरमें घूम-घूमकर लोगोंको तमाशा बताता और सर्व साधारणमें यह प्रगट करता कि मैं सर्प-क्रीड़ाका अच्छा जानकार है। कोई और भी इस शहर में सर्पकोड़ाका अच्छा जानकार हो, तो फिर उसे मैं अपना खेल दिखलाऊँ। यह हाल धोरे-धीरे नागदत्तके पास पहुंचा। वह तो सर्पक्रीड़ाका पहले हीसे बहुत शौकोन था, फिर अब तो एक और उसका साथी मिल गया। उसने उसी समय नौकरोंको भेजकर उसे अपने पास बुला मँगाया । गारुड़ि तो इस कोशिसमें था ही कि नागदत्तको किसो . तरह मेरी खबर लग जाय और वह मुझे बुलावे । प्रियधर्म उसके पास गया । उसे पहुंचते ही नागदत्तने अभिमानमें आकर उससे कहा-मंत्रवित्, तुम अपने सर्पोको बाहर निकालो न? मैं उनके साथ कुछ खेल तो देखू कि वे कैसे जहरीले हैं। प्रियधर्म बोला-मैं राजपूत्रोंके साथ ऐसी हँसी दिल्लगी या खेल करना नहीं चाहता कि जिसमें जानकी जोखम तक हो। बतलाओ मैं तुम्हारे सामने सर्प निकाल कर रख दूं और तुम उनके साथ खेलो, इस बीच में कुछ तुम्हें जोखम पहुंच जाय तब राजा मेरी क्या बुरी दशा करें ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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