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________________ नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टोका सहित-काव्या शब्द | ६१ रण्डी) और ३. सरिदन्तर (नदी विशेष) नपुंसक काव्य शब्द के दो अर्थ होते हैं -१. ग्रन्थ (पुस्तक) और २. रसात्मक वाक्य (रसमय वाक्य विशेष) किन्तु शुक्र अथ में काव्य शब्द पुल्लिग माना जाता है। मूल : काव्या स्त्री पूतनायां स्यात् धीषणायामपीष्यते । काष्ठा दारुहरिद्रायामुत्कर्षे स्थिति सीमयोः ॥३२७।। अष्टादश निमेषात्मकालेदिशि मता स्त्रियाम् । कासः शोभाञ्जने काशतृणरोगविशेषयोः ॥३२८॥ हिन्दी टीका- काव्या शब्द स्त्रीलिंग है और उसके दो अर्थ होते हैं-१. पूतना (राक्षसी विशेष) और २ धीषणा (बुद्धि विशेष) । काष्ठा शब्द भी स्त्रीलिंग है और उसके छह अर्थ होते हैं-१. दारुहरिद्रा (काष्ठ विशेष), २. उत्कर्ष, ३. स्थिति, ४. सीमा, ५. अष्टादश निमेषात्मक काल (काल विशेष) और ६. दिशा (प्राची वगैरह दिशा) । कास शब्द पुल्लिग है और उसके तीन अर्थ होते हैं-१. शोभाजन (अञ्जन विशेष) २. काशतृण (कासमुंज वगेरह तृण विशेष) और ३. रोग विशेष (कास श्वास)। मूल : कासूविकलवाग् बुद्धि-रोग-शक्त्यास्त्रदीप्तिषु । काहलस्तु पुमान् वाद्यभाण्डभेदविडालयोः ॥३२६॥ हिन्दी टीका-कासू शब्द के पांच अर्थ होते हैं-१. विकलवाक् (गंगा) २. बुद्धि, ३. रोग (ब्याधि) ४. शक्त्यस्त्र (शक्ति नाम का अस्त्र विशेष) और ५. दीप्ति (प्रकाश प्रभा वगैरह)। इस तरह कासू शब्द के पांच अर्थ समझना चाहिए । काहल शब्द पुल्लिग है और उसके सात अर्थ होते हैं-१. वाद्यभाण्ड भेद (ढोल वगैरह) २. विडाल (बिल्ली) शेष पाँच अर्थ आगे बतलाये जाते हैं। मूल : शब्दमात्रे कुक्कुटेऽथभृशे शुष्के खले त्रिषु । काहारकस्तु शिविकावाहके किंकरः पुमान् ॥३३०॥ घोटके कोकिले कामदेव इन्दिन्दिरेऽपि च । किङ्किरातः शुकेऽशोके कन्दर्पे पीतभद्रके ॥३३१॥ हिन्दी टीका-काहल शब्द के और भी पांच अर्थ निम्न प्रकार जानना चाहिए-१. शब्दमात्र, २. कुक्कुट (मुर्गा) और ३. भृश (अत्यन्त) एवं ४. शुष्क (सूखा हुआ) तथा ५. खल (दुष्ट शत्रु) इन तीन अर्थों में काहल शब्द त्रिलिंग माना जाता है। काहारक शब्द का १. शिविकावाहक (कहार) अर्थ होता है। किङ्कर शब्द पुल्लिग है और उसके चार अर्थ होते हैं -१. घोटक (घोड़ा) २. कोकिल (कोयल) ३. कामदेव और ४. इन्दिन्दिर (भ्रमर)। किकिरात शब्द पुल्लिग है और उसके चार अर्थ होते शुक (तोता, सूगा) २. अशोक (अशोक नाम का वृक्ष विशेष) ३. कन्दर्प (कामदेव) और ४. पीतभद्रक (वृक्ष विशेष)। मूल : रक्ताम्लाने कोकिलेऽथ किजल्कः केशरे पुमान् । किट्टालस्तु पुमान् ताम्रकलशे लोहगूहके ॥३३२॥ किणिः स्त्रियामपामार्गेमांसग्रन्थौ घुणे पुमान् । कितवौ वाचके मत्ते द्यूतकृतु खलयोः पुमान् ॥३३३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016062
Book TitleNanarthodaysagar kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherGhasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore
Publication Year1988
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size22 MB
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