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________________ नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टीका सहित-कण्ठीरव शब्द | ४७ शब्द पुल्लिग है और उसके छह अर्थ होते हैं-१. शूरण (ओल) .. गोणीप्रभेद (कन्तान-सपटा वगैरह) ३. युद्ध ४. नौका ५ क्रमेलक (ऊँट) और ६. खनित्र (खन्ती-दराती) किन्तु कण्ठिका शब्द स्त्रीलिंग है और उसका कण्ठभूषण (गले का हार) अर्थ होता है । इस तरह कण्ठ शब्द के पाँच और कण्ठाल शब्द के छह और कण्ठिका शब्द का एक अर्थ समझना चाहिए। मूल : कण्ठीरवः पुमान् सिंहे कपोते मत्तकुञ्जरे। प्रबन्धकल्पनांस्तोक सत्यां प्राज्ञा: कथां विदुः ॥ २४८ ॥ कथाप्रसंगो वार्तायां वातूल विष-वैद्ययोः । कदनं मारणे युद्ध मर्दे पापे नपुंसकम् ॥ २४६ ।। हिन्दी टीका कण्ठीरव शब्द पुल्लिग है और उसके तीन अर्थ होते हैं-१. सिंह (शेर) २. कपोत (कबूतर) और ३. मत्तकुञ्जर (मतवाला हाथी) । कथा शब्द स्त्रीलिंग है और उसका - स्तोक सत्य प्रबन्ध कल्पना (थोड़े सत्य भाग से युक्त प्रबन्ध कल्पना) अथं माना जाता है । जैसे-कादम्बरी कथा काव्य मानी जाती है क्योंकि उसके कुछ हिस्से में मौलिक बात भी आधार रूप से आती है। इसी प्रकार तिलकमञ्जरी भी कथा काव्य मानी जाती है। कथा प्रसंग शब्द पुल्लिग है और उसके तीन अर्थ होते हैं - १ वार्ता (कथानक) २. वातूल (बात व्याधि वाला) और ३. विषवैद्य (जहर उतारने वाला वैद्यराज)। कदन शब्द नपुंसक है और उसके चार अर्थ होते हैं—१. मारण (मारना) २. युद्ध ३. मर्द (मर्दन करनासताना) और ४ पाप । इस प्रकार कण्ठीरव शब्द के तीन, कथा शब्द का एक एवं प्रसंग शब्द के तीन और कदन शब्द के चार अर्थ समझना चाहिए। मूल : कदम्ब: सर्षपे नीपे देव ताड-समूहयोः । कदरः श्वेतखदिरे क्रकच-व्याधिभेदयोः ॥ २५० ॥ प्रकाशांकुशयोः पुंसि कदर्यः कृपणे त्रिषु । कदली स्त्री पताकायां रम्भायां हरिणान्तरे ॥ २५१ ।। हिन्दी टोका-कदम्ब शब्द पुल्लिग है और उसके चार अर्थ होते हैं-१. सर्षप (सरसों) २. नीप (तमाल वृक्ष) ३. देवताड (देवताल नाम का गुजराती वृक्ष विशेष) और ४. समूह। कदर शब्द भी पुल्लिग है और उसके तीन अर्थ होते हैं - १. श्वेत खदिर (सफेद कत्था-खैर) २. क्रकच (आरा) और ३ व्याधि भेद (रोग विशेष) को भी कदर कहते हैं। प्रकाश और अंकुश अर्थ में कदर्य शब्द पुल्लिग माना जाता है और कृपण ( कम) अर्थ में कदर्य शब्द त्रिलिंग माना जाता है क्योंकि पुरुष स्त्री साधारण सभी मनुष्य कृपण हो सकते हैं । कदली शब्द स्त्रीलिंग है और उसके तोन अर्थ होते हैं-१. पताका (ध्वज) २. रम्भा (केला) और ३ हरिणान्तर (हरिणी विशेष) । कनकः काञ्चनाले स्यात् लाक्षातरु-पलाशयोः । धुस्तूरे चम्पके नागकेशरे कणगुग्गुले ॥२५२॥ कालीये कासमदं च पुमान् क्लीवन्तु काञ्चने । कन्था मृन्मय भित्तौ स्यात् स्त्रीलिंगः स्यूतकर्पटे ॥२५३॥ मूल : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016062
Book TitleNanarthodaysagar kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherGhasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore
Publication Year1988
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size22 MB
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