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________________ नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टीका सहित-शक्वरी शब्द | ३२१ हिन्दी टीका-शक्वरी शब्द स्त्रीलिंग है और उसके तीन अर्थ होते हैं -१. सरिभेद (सरिद् विशेष) नदी विशेष को शक्वरी कहते हैं। २. मेखला (करधनी कन्दोड़ा) और ३. वृत्तभेद (वृत्त विशेषशक्वरी नाम का छन्द)। शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है और उसके पाँच अर्थ होते हैं-१. प्रकृति (मूल प्रकृति वगैरह) २. गौरी, ३. लक्ष्मी, ४. अस्त्रान्तर (शस्त्र विशेष, शक्ति नाम का अस्त्र) और ५. बल (ताकत सेना वगैरह)। शक शब्द पुल्लिग है और उसके तीन अर्थ माने जाते हैं-१. पुरन्दर (इन्द्र) २. ज्येष्ठानक्षत्र और ३. कुटजद्र म (कुटज नाम का पर्वतीय फल का वृक्ष) । शक्रि शब्द पल्लिग है और उसके चार अर्थ होते हैं-१. कुलिश (वज्र) २. मेघ, ३. मतंगज (हाथी) और ४. महीघ्र (पर्वत)। शंकरां ना महादेवे त्रिषु मंगलकारके । कर्पू रभेदे कैलाशे शङ्करावास ईरितः ॥१८४७।। शंकरी स्त्री शक्तुफला-मञ्जिष्ठा-पार्वतीषु च । शङ्कितस्तकिते भीते विष पुंसि तु चोरके ॥१८४८॥ हिन्दी टीका-शंकर शब्द पुल्लिग है और उसका अर्थ -१. महादेव होता है । २. मंगलकारक अर्थ में शंकर शब्द त्रिलिंग माना गया है । शंकरावास शब्द का अर्थ-१. कर्पूरभेद (कर्पूर विशेष) और २. कैलाश होता है । शकरी शब्द स्त्रीलिंग है और उसके तीन अर्थ होते हैं-१. शक्त फला (शमी) २. मजिष्ठा और ३. पार्वती । शंकित शब्द-१. तकित और २. भीत अर्थ में त्रिलिंग है किन्तु ३. चोरक (चोरक नाम का गन्ध द्रव्य विशेष) अर्थ में पुल्लिग माना जाता है। मूल: शंका त्रासे वितर्के च संशये समुदाहृता। शंकुर्ना स्थाणु-शल्यास्त्र-संख्याभेदेषु कीलके ॥१८४६॥ कीले पत्रशिराजाल - द्वादशांगुलमानयोः । गन्धद्रव्ये नखीसंज्ञ मेढ़ मत्स्यान्तरेऽस्रपे ॥१८५०॥ हिन्दी टीका--शंका शब्द स्त्रीलिंग है और उसके तीन अर्थ माने गये हैं-१. त्रास, २. वितर्क और ३. संशय शंकु शब्द पुल्लिग है और उसके चार अर्थ माने गये हैं - १. स्थाणु (खूटा) २. शल्यास्त्र, ३. संख्या भेद (संख्या विशेष दश लक्षकोटि) और ४. कीलक (दीप और सूर्य की छाया परिमाणार्थ काष्ठादि निर्मित क्रमशः सूक्ष्माग्र द्वादशांगुलपरिमित कीलक संज्ञक वस्तु विशेष खीला, काँटी वगैरह)। शंकु शब्द के और भी छह अर्थ माने जाते हैं-१. कील (कांटी वगैरह) २. पत्रशिराजाल (पत्ता और शिरा का जाल) और ३. द्वादशांगुलमान (बारह अंगुलि प्रमाण) ४. नखीसंज्ञ गन्ध द्रव्य (नख नाम का गन्ध द्रव्य विशेष) और ५. मेढ़ (मूत्रेन्द्रिय) तथा ६. मत्स्यान्तर (मत्स्य विशेष) और ७. अस्रप (राक्षस)। मूल महादेवे च कलुषे यादस्यप्यथ शंकुला। कथिता पूग कर्तन्यां पत्र्यां कुवलयस्य च ॥१८५१।। शंखोऽस्त्रियां ललाटास्थ्निकम्बौ संख्यान्तरे निधौ । दन्तिदन्तान्तराले च रणवाद्यान्तरे मुनौ ॥१८५२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016062
Book TitleNanarthodaysagar kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherGhasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore
Publication Year1988
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size22 MB
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