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________________ मूल : नानार्थोदयसागर कोष: हिन्दी टीका सहित - दिव्य शब्द | १५७ मनोरथ प्रसिद्ध्यर्थं देवेभ्यो यत् प्रदीयते । उपयाचितकं हिन्दी टीका - दिव्य शब्द का एक और भी अर्थ माना गया है - १. भावभेद ( भाव विशेष ) | दिव्य चक्षु के पाँच अर्थ माने जाते हैं - १. सुन्दर लोचन, २. स्वर्गीय चक्षु और ३. ज्ञान चक्षु तथा ४. अन्ध (अन्ध ( ) एवं ५. उपचक्षु ( चश्मा ) । अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये देवों को जो दिया जाता है उसको उपयाचितक और दिव्यदोहद कहते हैं। इस तरह दिव्य चक्षु शब्द के पाँच अर्थ जानना । मूल : दिव्या शतावरी - धात्री - वन्ध्याकर्कोटकीषु च । श्वेत दूर्वा गन्धकुटी ब्राह्मीषु स्थूलजीरके ॥ ८६४ ।। हरीतक्यां महामेदा नायिकाभेदयोरपि । दिष्टो दारुहरिद्रायां काले भाग्ये नपुंसकम् ॥ ८६५ ।। हिन्दी टीका - दिव्या शब्द स्त्रीलिंग है और उसके ग्यारह अर्थ माने जाते हैं - १. शतावरी (शतावर) २. धात्री (आँवला) ३. वन्ध्या ४. कर्कोटकी (सर्प विशेष करेंत सात ) ५. श्वेत दूर्वा (सफेद दूभी) ६. गन्धकुटी (ममोरफली - मुरा नाम का सुगन्ध द्रव्य विशेष) ७. ब्राह्मी (सोमलता) और ८. स्थूलजीरक तथा 8. हरीतको (हर्रे) १०. महामेदा ( महामज्जा) और ११ नायिकाभेद ( नायिका विशेष ) । दिष्ट शब्द पुल्लिंग है और उसके दो अर्थ माने गये हैं - १. दारुहरिद्रा ( हलदी विशेष) और २. काल, किन्तु ३. भाग्य अर्थ में दिष्ट शब्द नपुंसक माना जाता है। इस तरह दिष्ट शब्द के कुल तीन अर्थ जानना । Jain Education International दिव्यदोहदं तदुविदुर्बुधाः ॥ ८६३ ॥ त्रिषूपदिष्टे दिष्टिस्तु प्रमोद - परिमाणयोः । दीनं तगरपुष्पे स्यात् त्रिषु भीतदरिद्रयोः ॥ ८६६ ॥ दोनार : स्वर्णभूषायां मुद्रायां मानवस्तुनि । स्वर्णकर्षद्वये हेम्नि द्वात्रिशक्तिकामिते ॥। ८६७ ।। हिन्दी टीका -- उपदिष्ट (उपदेश दिया हुआ ) अर्थ में दिष्ट शब्द त्रिलिंग माना जाता है ।। दिष्टि शब्द के दो अर्थ होते हैं - १. प्रमोद (आनन्द) और २. परिमाण ( माप विशेष ) । नपुंसक दीन शब्द का अर्थ - १. तगरपुष्प, किन्तु २. भीत ( डरपोक, भीरु ) और दरिद्र, इन दोनों अर्थों में दीन शब्द त्रिलिंग माना जाता है क्योंकि पुरुष स्त्री साधारण कोई भी प्राणी भीरु तथा दरिद्र हो सकता है । दीनार शब्द पुल्लिंग है और उसके पाँच अर्थ माने जाते हैं - १. स्वर्णभूषा (सोने का आभूषण अशर्फी वगैरह ) २. मुद्रा (मोहर) ३. मानवस्तु ( परिमाण विशेष एक तोला ) ४. स्वर्णकर्षद्वय (एक तोला भर सोना) और ५. द्वात्रिंश क्तिकामितेन (बत्तीस रत्ती भर सोना – गिन्नी ) । इस तरह दीनार शब्द के पाँच अर्थ मानना । निष्केऽथ दीपोवर्तिस्थज्वलद् वैश्वानराचिषि । मूल : दीपकं कुंकुमेवाक्यालंकारे दीप्ति कारके || ८६८ ॥ दीपको रागभेदे स्याद् यमान्यां लोचमस्तके | दीपे शशादने दीपट्टि स्याद् दीपकज्जले ॥ ८६६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016062
Book TitleNanarthodaysagar kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherGhasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore
Publication Year1988
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size22 MB
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