SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकचर्या-एषणा जाता है। तीसरे दिन एकासन किया जाता है-इसमें भोजन में प्रथम बार जो भोजन सामने आवे उसे ही ग्रहण किया जाता है । चौथे दिन उपवास और पाँचवें दिन आचाम्ल भोजन (इमली के साथ भात आहार में लेना) किया जाता है । हपु० ३४.११० एकचर्या-मुनियों का एक व्रत-एकाकी विहार करना । मपु० ११.६६ एकचूड-विद्याधर दृढरथ का वंशज, उडुपालन विद्याधर का पुत्र और द्वि चूड का पिता । मपु० ५.४७-५६ एकत्वभावना-बारह भावनाओं में एक भावना ।। इस भावना में ज्ञान, दर्शन स्वरूपी आत्मा अकेला है, वह अकेला ही सुख-दुःख का भोक्ता है, तपश्चरण और रत्नत्रय आदि से वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है, ऐसा अदीन मन से चिन्तन किया जाता है। मपु० ११.१०६, ३८. १८४, पपु० १४.२३७-२३९, पापु० २५.९०-९२, वीवच० ११. ३५-४३ एकत्ववितकवीचार-शुक्लध्यान के दो भेदों में दूसरा भेद । जिस ध्यान में अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण (परिवर्तन) नहीं होता वह एकत्ववितर्कविचार नाम का शुक्लध्यान होता है। हपु० ५६.५४, ५८, ६४, ६५ यह ध्यान मोहनीय कर्म के नष्ट होने पर, तीन योगों में से किसी एक योग में स्थिर रहनेवाले और पूर्वो के ज्ञाता मुनियों के उनकी उपशम या क्षपक श्रेणियों में यथायोग्य रूप से होता है । इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का विनाश होता है । फलतः कैवल्य की प्राप्ति होती है । मपु० २१.८७, १८४-१८६ एकवण्डधर-तीर्थकर वृषभदेव के साथ दीक्षित हुए किन्तु परीषह सहने में असमर्थ, वनदेवता के भय से भयभीत, पथभ्रष्ट, कन्दमूल-फल भोजी और वन-उटज निवासी एकदण्डधारी परिव्राजक । मपु० १८. ५१-६० एकद्वित्रिलघुक्रिया-छन्द शास्त्र के छः प्रत्ययों में एक प्रत्यय (प्रकरण)। मपु० १६.११४ एकवशाङ्गपारी-ग्यारह अंगधारी पाँच आचार्य-नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस । हपु० १.६४ । एकपति-स्त्रियों का एक व्रत । इससे वे अपने पति में ही अनुरागी रहती हैं । कुलीन और सुसंस्कृत नारियाँ सहज भाव से इस व्रत का पालन करती है । मपु० ६२.४१ एकपर्वा अनेक प्रकार की शक्तियों से युक्त एक औषधि-विद्या । यह विद्या धरणेन्द्र ने नमि और विनमि को दो थी । हपु० २२.६७-६९ एकभक्त-मुनियों का एक मूल गुण-दिन में एक ही बार आहार ग्रहण करना । मपु० १८.७२, हपु० २.१२८ एकभार्यत्व-एक पत्नीव्रत । एक हो पत्नी रखने का व्रती पुरुष । मपु० ६२.४१ एकलव्य-वनवासी भील, गुरु द्रोणाचार्य का परोक्ष शिष्य । इसने अपने परोक्ष गुरु से शब्द बेधि-विद्या में निपुणता प्राप्त की थी। इसने गुरु के साक्षात् दर्शन नहीं किये थे, एक लौहस्तूप में ही उसने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा अंकित कर ली थी। वह इसी स्तूप की वन्दना करके शब्दबेधिनी धनुर्विद्या प्राप्त कर सका था। इसने अर्जुन के बैन पुराणकोश : ६७ साथ आये हुए गुरु के दर्शन कर गुरु की आज्ञानुसार अपने दाएं हाथ का अगूठा अर्पण करते हुए अपनी गुरुभक्ति का परिचय भी दिया था। पापु० १०.२०५, २१६, २२३, २२४, २६२-२६७ एकविद्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४१ एकशैल-पूर्व विदेह का वक्षारगिरि । यह नील पर्वत और सीता नदी के मध्य में स्थित है । नदी के तट पर इसकी ऊँचाई पाँच सौ योजन है इसके शिखर पर चार कूट हैं । उनमें कुलाचलों के समीपवर्ती कूटों पर जिनेन्द्र भगवान् के चैत्यालय हैं और बीच के कटों पर व्यन्तर देवों के क्रीडागृह बने हुए हैं। मपु० ६३.२०२, हपु० ५.२२८, २३३-२३५ एकन्तमिथ्यात्व-मिथ्यात्व के पाँच भेदों में एक भेद । द्रव्य और पर्याय रूप पदार्थ में या मोक्ष के साधनभूत अंगों में किसी एक या दो अंगों को जानकर यह समझ लेना कि 'इतना मात्र ही उसका स्वरूप है, इससे अधिक कुछ नहीं' यही एकान्त मिथ्यात्व है। मपु० ६२. २९६-३०० एकालापक-मनोरंजन का एक प्रकार। दो प्रश्नों का एक ही उत्तर माँगना । देवियाँ मरुदेवी का मनोरंजन इसी प्रकार से करती रहती थीं। मपु० १९.२२०-२२१ एकावली-(१) निर्मल चिकने मोतियों से गुम्फित हार । इस हार में एक ही लड़ होती है। बीच में एक.बड़ा मणि लगता है । इसे मणिमध्यमा यष्टि भी कहा है । मपु० १५.८२, १६.५० (२),एक व्रत । इसमें एक उपवास और एक पारणा के क्रम से चौबीस उपवास और चौबीस ही पारणाएं की जाती हैं। इस प्रकार यह व्रत अड़तालीस दिन में समाप्त होता है। अखण्डसुख की प्राप्ति इसका फल है । हपु० ३४.६७ एणाजिन-मृग-चर्म । मपु० ३९.२८ एणीपुत्र-श्रावस्ती के राजा शीलायुध और उनकी रानी ऋषिदत्ता का पुत्र । इसकी माँ इसे जन्म देकर ही मर गयी थी। प्रियंगुसन्दरी इसी की पुत्री थी। हपु० २८.५-६, २९.३४-५८ एर काम्पिल्य नगर के निवासी ब्राह्मण शिखी और उसकी भार्या इषु का पुत्र । राजगृही के राजा की पुत्री से इसका विवाह हुआ था और यह राजा दशरथ के पुत्रों का गुरु था। पपु० २५.४१-५८ एरा हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन की रानी पंचम चक्री और सोलहवें तीर्थकर शान्तिनाथ की जननी । हपु० ४५.६, १८ एला-इलायची का वृक्ष । मपु० २९.१०० एवम्भूतनय-एक नय। जो पदार्थ जिस क्षण में जैसी क्रिया करता है, उस क्षण में उसको उसी रूप में कहना, जैसे जिस समय इन्द्र ऐश्वर्य का अनुभव करता है उसी समय उसे इन्द्र कहना अन्य समय में नहीं। हपु० ५८.४१-४९ एषणा-एक समिति । शरीर की स्थिरता के लिए पिण्डशुद्धिपूर्वक मुनि का छियालीस दोषों से रहित आहार ग्रहण करना । छियालीस दोषों में सोलह उद्गज दोष, सोलह उत्पादन दोष, दस एषणा दोष और चार दानी दोष होते हैं। पपु० १४.१०८, हपु० २.१२४, ९. १८७-१८८, पापु० ९.९३ ।। चौबीस अडतात Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy