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________________ जैन पुराणकोश : ६५ ऋत्विज्-ऋषभ गणधर ऋजुमति और विपुलमति दोनों प्रकार के मनःपर्ययज्ञान के धारक थे। मपु० २.६८, हपु० १०.१५३ (३) सात नयों में चौथा पर्यायाथिक नय । यह पदार्थ के विशिष्ट स्वरूप को बताता है । यह नय पदार्थ की भूत-भविष्यत् रूप वक्रपर्याय को छोड़कर वर्तमान रूप सरल पर्याय को ही ग्रहण करता है । हपु० ५८.४१-४२, ४६ ऋत्विज्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२७ ऋतु-(१) सौधर्म और ऐशान नामक आरम्भ के दो स्वर्गों का इन्द्रक विमान । इसकी चारों दिशाओं में तिरेसठ विमान हैं। आगे प्रत्येक इन्द्रक में एक-एक विमान कम होता जाता है । मपु० १३.६७, हपु० ६.४२-४४ (२) सौधर्म और ऐशान स्वर्गों का एक पटल । हपु० ६.४२-४४ (३) दो मास का समय । हपु० ७.२१ (४) स्त्री की रजःशद्धि से लेकर पन्द्रह दिन का काल-ऋतुकाल । मपु० ३८.१३४ ऋतुविमान-सौधर्म स्वर्ग का विमान । यहीं सौधर्मेन्द्र का निवास स्थान है । मपु० १३.६७, ७९ ऋद्धि-योगियों आदि को तपश्चर्या से प्राप्त सात चामत्कारिक विशिष्ट ___ शक्तियाँ । मपु० २.९, ३६.१४४ ऋद्धीश-सौधर्म और ऐशान स्वर्ग का तेरहवां पटल । हपु० ६.४५ ऋषभ-(१) युग के आदि में हुए प्रथम तीर्थकर । वृषभदेव को इन्द्र द्वारा प्राप्त यह नाम । मपु० ३.१, हपु० ८.१९६, ९.७३, ये कुलकर नाभिराय और उनकी रानी मरुदेवी के पुत्र थे। अयोध्या इनकी जन्मभूमि तथा राजधानी थी। पपु० ३.८९-९१, १५९, १६९, १७४, २१९ ये सोलह स्वप्नपूर्वक आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन माँ मरुदेवी के गर्भ में आये थे । पापु २.११० इनका जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में नवमी के दिन सूर्योदय के समय उद्धराषाढ़ नक्षत्र में और ब्रह्म नामक महायोग में हुआ था। मपु० १३.२-३ इन्द्र ने सुमेरु पर्वत ले जाकर क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था । मपु० १३. २१३-२१५ इनके जन्म से ही कर्ण सछिद्र थे । मपु० १४.१० ये जन्म से ही मति-श्रुत तथा अवधि इन तीन ज्ञानों से युक्त थे। मपु० १४. १७८ बाल्यावस्था में देव-बालकों के साथ इन्होंने दण्ड क्रीडा एवं वन क्रीडाएँ की थीं। मपु० १४.२००, २०७-२०८ ये तप्त स्वर्ण के समान कान्तिधारी स्वेद और मल से तथा त्रिदोष जनित रोगों से रहित, एक हजार आठ लक्षणों से सहित, परमीदारिकशरीरी और समचतुरस्रसंस्थान धारी थे। मपु० १५.२-३, ३०.३३ इनके समय में कल्पवृक्ष नष्ट हो गये थे। विशेषता यह थी कि पृथिवी बिना जोते बोये अपने आप उत्पन्न धान्य से युक्त रहती थी। इक्ष ही उस समय का मुख्य भोजन था। पपु० ३.२३१-२३३ यशस्वतो और सुनन्दा इनकी दो रानियां थीं। इनमें यशस्वती से चरमशरीरी प्रतापी भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मीनामा पुत्री हुई थी। सुनन्दा के बाहुबली और सुन्दरी उत्पन्न हुए थे। मपु० १६.१-७ पुत्रियों में ब्राह्मी को लिपिज्ञान तथा सुन्दरी को इन्होंने अंक ज्ञान में निपुण बनाया था । मपु० १६.१०८ प्रजा के निवेदन पर प्रजा को सर्वप्रथम इन्होंने ही असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छः आजीविका के उपायों का उपदेश दिया था। मपु० १६.१७९ सर्वप्रथम इन्होंने समझाया था कि वृक्षों से भोज्य सामग्री प्राप्त की जा सकती है । भोज्य और अभोज्य पदार्थों का भेद करते हुए इन्होंने कहा था कि आम, नारियल, नीब, जामुन, राजादन (चिरौंजी), खजूर, पनस, केला, बिजौरा, महुआ, नारंग, सुपारी, तिन्दुक, कैथ, बैर, चिंचणी (इमली), भिलमा, चारोली, तथा बेलों में द्राक्षा. कुष्माण्डी, ककड़ी आदि भोज्य हैं । अन्य बल्लियाँ (बेल) अभोज्य है। श्रीहि, शालि, मूंग, चौलाई, उड़द, गेहूँ, सरसों, इलायची, तिल, श्यामक, क्रोद्रव, मसूर, चना, जौ, धान, त्रिपुटक, तुअर, वनमूंग, नीवार आदि इन्होंने खाने योग्य बताये थे । बर्तन बनाने और भोजन पकाने की विधि भी इन्होंने बतायी थी । मपु० १६.१७९, पापु० २.१४३-१५४, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना भी इन्हीं ने ही की थी। आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन इन्होंने कृतयुग का आरम्भ किया था इसीलिए ये प्रजापति कहलाये। मपु० १६.१९०' इनकी शारीरिक ऊँचाई पाँच सौ धनुष तथा आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व थो । पपु० २०.११२, ११८ बीस लाख वर्ष पूर्व का समय इन्होंने कुमारावस्था में व्यतीत किया था। मपु० १६.१२९ तिरेसठ लाख पूर्व काल तक राज्य करने के उपरान्त नृत्य करते-करते नीलांजना नाम की अप्सरा के विलीन हो जाने पर इनको संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ था । मपु० १६.२६८, १७.६-११ भरत का राज्याभिषेक कर तथा बाहुबलि को युवराज पद देकर ये सिद्धार्थक बन गये थे । मपु० १७.७२-७७, १८१ वहाँ इन्होंने पूर्वाभिमुख होकर पद्मासन मुद्रा में पंचमुष्टि केशलोंच किया और चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन अपराल काल में उत्तराषाढ़ नक्षत्र में दीक्षा धारण की थी। स्वामि-भक्ति से प्रेरित होकर चार हजार अन्य राजा भी इनके साथ दीक्षित हुए थे। मपु० १७.२००-२०३, २१२-२१४ ये छ: मास तक निश्चल कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ रहे । पपु० ३. २८६-२९२ आहार-विधि जाननेवालों के अभाव में एक वर्ष तक इन्हें आहार का अन्तराय रहा। एक वर्ष पश्चात् राजा श्रेयांस के यहाँ इक्षुरस द्वारा इनकी प्रथम पारणा हुई थी। मपु० २०.२८, १००, पपु० ४.६-१६ ये मेरु के समान अचल प्रतिमामोग में एक हजार वर्ष तक खड़े रहे । इनकी भुजाएँ नीचे की ओर लटलती रहीं, केश बढ़कर जटाएँ हो गयी थीं। पपु० ११.२८९ पुरिमताल नगर के समीप शकट नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर इन्होंने चित्त की एकाग्रता धारण की थी। मपु० २०.२१८-२२० इन्हें फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान और समवसरण की विभूति प्राप्त हुई थी। मपु० २०.२६७२६८ वटवृक्ष के नीचे इन्हें केवलज्ञान हुआ था अतः आज भी लोग वटवृक्ष को पूजते हैं । पपु० ११.२९२-२९३ इन्द्र ने एक हजार आठ नामों से इनका गुणगान किया था। मपु० २५.९-२१७ भरत की आधीनता स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर बाहुबलि को छोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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