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________________ उपसर्ग-उवा जैन पुराणकोश : ६३ उपसर्ग-(१) मुनियों की तप-साधना और ध्यान में देव, मनुष्य, पशु उपेन्द्र-(१) कृष्ण । हपु० ५९.१२६ और अचेतन पदार्थों द्वारा अप्रत्याशित रूप से विभिन्न प्रकार के कष्ट (२) वैशाली नगरी के राजा चेटक तथा उसकी रानी सुभद्रा के और बाधाएँ प्राप्त होना । मपु० ७०.२८०-२८२, हपु० १.२३, २०. दस पुत्रों में तीसरा पुत्र । मपु० ७५.३-५ २७, वीवच० १३.५९-८२ उपेन्द्रसेन-(१) इन्द्रपुर नगर का स्वामी । इसने अपनी पुत्री पद्मावती (२) गान्धर्व की तीन विधियों में पदगत एक विधि है। इसमें पुण्डरीक को विवाही थी। मपु० ७५.१७९ जाति तद्धित, छन्द, सन्धि, स्वर, तिङन्त, उपसर्ग तथा वर्ण आदि (२) रत्नपुर के राजा श्रीषेण का पुत्र । मपु० ६२.३४१ आते हैं । हपु० १९.१४९ (३) रत्नपुर नगर के राजा श्रीषेण का पुत्र । यह इन्द्रसेन का उपसौमनस-मेरु के सौमनस वन का अन्तर्वर्ती एक वन । हपु० ५.३०८ भाई था। मपु०६२.३४०, ३५३ उपस्थापना-प्रायश्चित्त का एक भेद। इसमें संघ से निष्कासित मुनि उपोद्धातविधि-उपक्रम का दूसरा नाम । मपु० २.१०३ दे० उपक्रम को पुनः दीक्षा दी जाती है । हपु० ६४.३७ उभयश्रेणि-विजयाधं की उत्तर और दक्षिण श्रेणि । मपु० ३५.७३ उपाधिवाक्-सत्प्रवाद पूर्व की बारह भाषाओं में एक भाषा । श्रोता उमा-उज्जयिनी के अतिमुक्तक नामक श्मसान में प्रतिमायोगधारी इसके द्वारा अर्थोपार्जन आदि कार्यों में लग जाता है । हपु० १०.९४ वर्धमान के धैर्य-परीक्षक महादेव की सहधर्मिणी। मपु० ७४.३३१उपाध्याय-(१) पाँच परमेष्ठियों में चौथे परमेष्ठी। हपु० १.२८ ये उरगास्त्र-प्रलयकालीन मेघ के समान शब्दकारी और विषमय अग्निनिज और पर के ज्ञाता तथा अनुगामी जनों के उपदेशक होते हैं । पपु० ८९.२९ कणों से दुःसह अस्त्र । इस अस्त्र का प्रयोग लक्ष्मण ने रावण पर (२) अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में चौदहवीं वस्तु । हपु० किया था। बर्हणास्त्र इसका निवारक अस्त्र होता है। पपु०७४. १०.७७-८० दे० अग्रायणीयपूर्व ११०-१११ उरवछद-कवच । वैजयन्त द्वार के स्वामी बरतनु देव ने एक कवच उपानह -जूता । आदिपुराण काल में की जानेवाली मनोज्ञ वेष-भूषा का भरत को भेट में दिया था । पपु० ११.१२-१३ अंग । तपस्वी इसका परित्याग करते हैं । मपु० ३९.१९३ उर्वशी-(१) इन्द्र की अप्सरा । पपु० ७.३१ उपाय-राज्य विस्तार और प्रजा शासन के प्रयोजनों की सिद्धि का (२) रावण की भार्या । पपु० ७७.९-१२ साधन । यह चार प्रकार का होता है-साम, दान, दण्ड और भेद। उर्वी-भरत की भाभी। इसने तथा अन्य भाभियों ने भरत के साथ मपु०८.२५३, ६८.६२ उपायविचय-धर्मध्यान का दूसरा भेद । योग की पुण्यरूप प्रवृत्तियों को ___ जलक्रीड़ा की थी । पपु० ८३.९३-१०० अपने आधीन करना उपाय है । इस उपाय का संकल्पन और चिन्तन उलूक-(१) एक देश । यहाँ के राजा को लवणांकुश ने पराजित किया उपाय-विचय है । हपु० ५६.४१ था । पपु० १०१.८३-८६ उपासक-श्रावक । मपु० ८.२०६ प्रतिमाओं के भेद से इसके ग्यारह (२) कृष्ण तथा जरासन्ध के बीच हुए युद्ध का एक योद्धा । इसने भेद होते हैं। श्रु त के सातवें अंग उपासकाध्ययन में इसकी पूर्ण नकुल के साथ युद्ध किया । हपु० ५१.३० विवेचना की गयी है। मपु० १०.१५८-१६१, ३४.१३३, १४१ । उल्का-(१) दिव्यास्त्र । यह अस्त्र हनुमान के पास था । पपु० ५४.३७ दे० अंग (२) राजगृह नगर निवासी बह्वाश की भार्या, विनोद की जननी । 'उपासक क्रिया-गृहस्थों से संबंधित क्रिया । यह तीन प्रकार की होती पपु० ८५.६९ उल्कामुख-एक बन । यह भीलों की निवासभूमि था । अपरनाम है-गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्जन्वय । इनमें गर्भान्वय में गर्भाधान से लेकर निर्वाण तक की त्रेपन क्रियाएं होती हैं। ये क्रियाएँ शुद्ध उल्कामुखी । वृषभदेव के तीर्थ में अयोध्यावासी रुद्रदत्त यहाँ के स्वामी कीलक के पास आकर रहा था । मपु० ७०.१५६, हपु० १८, १००सम्यग्दृष्टि के ही होती हैं। दीक्षान्वय क्रियाएँ अड़तालीस हैं, ये अवतार से लेकर निर्वाण पर्यन्त होनेवाली क्रियाएँ मोक्ष-साधक है। उल्मक-इस नाम का एक अर्धरथी राजा। यह कृण्ण-जरासन्ध युद्ध में सदगहित्वसे कर्ज़न्वय क्रियाएँ होती हैं । मपु० ६३.३००-३०५ कृष्ण का सहयोगी था। हपु० ५०.८३ उपासकाध्ययन-निखिल श्रावकाचार के विवेचक द्वादशांग श्रुत का उशीनर-वषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित इस नाम का एक सातवाँ अंग। इसमें ग्यारह स्थानों (प्रतिमाओं) के उपासकों की देश । मपु० १६.१४१-१५३, २९.४२ लवणांकुश ने इस देश के क्रियाओं का निरूपण किया गया है । इसमें ग्यारह लाख छप्पन हजार राजा को पराजित किया था । पपु० १०१.८२-८६ पद हैं। मपु० ३४.१३३, १४१, ६३.३००-३०१, हपु० १०.३७ उशीरवती-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणो में स्थित गान्धार देश की दे० अंग एक नदी । मपु० ४६.१४५-१४६ उपास्ति-सेनापुर नगर का एक गृहस्थ । यह बड़ा दानी था । दान के उशीरावर्त-एक देश । यहाँ चारुदत्त व्यापार के लिए गया था। हपु. प्रभाव से मरकर यह अन्द्रकपुर में मद्रनामक गृहस्थ और उसकी पत्नी २१.७५ धारिणी का पुत्र हुआ था। अपने सुसंस्कारों के कारण उसका प्रबोध उषा-(१) विजयाध पर्वत की उत्तरपणी में स्थित श्रु तशोणित मगर होता गया और सुगतियाँ मिलती गयीं । पपु० ३१.२२-३२ के निवासी बाण विद्याधर की कन्या। इसकी सखी चित्रलेखा ने Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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