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________________ ५८: जैन पुराणकोश उग्रवंश-उत्कृष्ट सिहनिष्क्रीडित उग्रवंश-सूर्यवंश और चन्द्रघंश के साथ उद्भूत वंश । इस वंश के बृहस्पति आदि मन्त्रियों का श्रुतसागर मुनि से यहीं विवाद हुआ था अनेक नप वृषभदेव के साथ तपस्या में लगे किन्तु वे तप से भ्रष्ट हो और वे देवों द्वारा यहीं कीले गये थे तथा इस नगर से उन्हें निकाल गये थे। हपु० १३.३३, २२.५१-५३ तीर्थकर वृषभदेव ने हरि, भी दिया गया था । हपु० २०.३-११ भोगों और शरीर से उदासीन अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ नामक क्षत्रियों को बुलाकर उन्हें लोगों का यहाँ निवास था । अपरनाम अवन्ति । लक्ष्मण को पति रूप चार-चार हजार राजाओं का स्वामी बनाया था। इनमें काश्यप में पाने का जिन कन्याओं को सौभाग्य प्राप्त हुआ था उनमें इस भगवान् से मघवा नाम प्राप्त करके इस वंश का मुख्य राजा हुआ । नगर की भी एक कन्या थी। पपु० ३३.१३८, १४५, ८०.११३, मपु० १६.२५५-२५७, २६१ राजा उग्रसेन न केवल इस वंश का था हपु० ६०.१०५ अपितु वह इसका संवर्द्धक भी था। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने इसी वंश उज्ज्वलांशुक-श्वेत वन का रेशमी वस्त्र । इसे स्त्री और पुरुष ग्रीष्म में जन्म लिया था । मपु० ७१.१४५, ७३.९५ ऋतु में धारण करते थे। मपु० ७.१४२ उग्रश्री–निर्वाणभक्ति नामक राजा के पश्चात् लंका के स्वामित्व को उज्ज्वलित-तीसरे नरक के सातवें प्रस्तार में सातवाँ इन्द्रक बिल । प्राप्त एक राक्षसवंशी राजा। यह माया और पराक्रम से सहित, इसकी चारों दिशाओं में छिहत्तर, विदिशाओं में बहत्तर और दोनों विद्याबल और महाकान्ति का धारी और विद्यानुयोग में कुशल था। के मिलकर एक सौ अड़तालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं। हपु० ४.८१, पपु० ५.३९६-४०० १२४ उग्रसेन-(१) हस्तिनापुर नगर के निवासी वैश्य सागरदत्त और उसकी उटज-वन-स्थित पर्णशाला। माधु वेषधारी तापस ऐसी पर्णशालाओं पत्नी धनवती का पुत्र । यह स्वभाव से क्रोधी था । अप्रत्याख्यानावरण में निवास करते हैं । मपु० १८.५८ क्रोध के कारण इमने तिर्यच आयु का बन्ध किया । राजाज्ञा के बिना उट्टिण्टिकारी-सुकान्त और रतिवेगा का वैरी। कबूतर-कबूतरी की राजकीय वस्तुएँ दूसरों को देने के कारण यह राजा द्वारा मारा गया पर्याय में उत्पन्न हुए सुकान्त और रतिवेगा को इसने मार्जार होकर और मरकर व्याघ्र हुआ। मपु० ८.२२४-२२६ खाया भी था तथा सुकान्त और रतिवेगा के हिरण्यवर्मा और प्रभा(२) विजयाध पर्वत की उत्तरदिशावर्ती अलका नगरी के नूप वती नाम से विद्याधर पर्याय में जन्मने पर इसने विद्य द्वेग नामक महासेन और उसकी रानी सुन्दरी का ज्येष्ठ पुत्र, वरसेन का अग्रज चोर के रूप में जन्म लेकर उन्हें अग्नि में जलाया था । हपु० १२.१८और वसुन्धरा का सहोदर । मपु०७६.२६२-२६३, २६५ (३) भगवान् नेमिनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५३२ ।। उडुपालन-वृषभदेव युगीन विद्याधर राज दृढ़रथ का वंशज, व्योमेन्द्र (४) हरिवंशी राजा नरवृष्टि और उसकी रानी पद्मावती का का पुत्र और एकचूड़ का पिता। यह भी अपने पिता की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र, देवसेन और महासेन का अग्रज तथा गांधारी का सहोदर । पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षित हो गया था। पपु० ५.४७-५६ मपु० ७०.१००-१०१ हरिवंश पुराण में नरवृष्टि को भोजकवृष्णि __उत्कट-भानुरक्ष के पुत्रों द्वारा बसाया गया नगर, राक्षसों की निवासकहा गया है । हपु० १८.१६ इसके घर, गुणधर, युक्तिक, दुर्धर, भूमि । पपु० ५.३७३-३७४ सागर, कंस और चन्द्र आदि अनेक पुत्र थे । हपु० ४८.३९ यह मथुरा ___उत्कीलन-एक दिव्य औषधि । इससे कीलित व्यक्ति को उत्कीलित नगरी का राजा था। पूर्वभव के वैर से इसी के पुत्र कंस ने इसे जेल किया जाता था। हपु० २१.१८ में डाल दिया था। कृष्ण ने इसे जेल से मुक्त कराया था । कृष्ण- उत्कोच-घूस । आरक्षक कर्मचारी अपराधी को घूस लेकर छोड़ देते थे। जरासन्ध युद्ध में इसने कृष्ण का साथ दिया था । नेमिकुमार के लिए यदि राजा को यह विदित हो जाता था तो आरक्षक को बड़ा कठोर कृष्ण ने स्वयं जाकर इनकी ही पुत्री राजीमति की याचना की थी। दण्ड दिया जाता था । मपु० ४६.२९६ यह एक अक्षौहिणी सेना का स्वामी था। मपु० ७०.३३१-३६८, उत्कृष्ट शातकुम्भ-एक व्रत । इसमें एक से लेकर सोलह तक के अंकों ७१.४-५, ७३-७६, १४५-१४६, हपु० १.९३, ५०.६७ को सोलह, पन्द्रह आदि के क्रम से एक तक लिखकर प्रथम अंक को उच्चस्थान-नवधा भक्ति के अन्तर्गत दूसरी भक्ति । इसमें पात्र को आहार छोड़ अवशिष्ट अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने के लिए पड़गाहने के पश्चात् उच्चस्थान पर बैठने के लिए उससे स्थान हों उतनी पारणाएं की जाती हैं। यह पांच सौ सत्तावन दिनों निवेदन किया जाता है । मपु० २०.८६-८७ में पूर्ण होता है । हपु० ३४.८७-८९ उच्छ्वास-व्यवहार काल का एक भेद । मपु० ३.१२ उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित-एक व्रत । इसमें एक से लेकर पन्द्रह तक के उच्छ्वास-निःश्वास-संख्यात आवलियों का समूह । हपु० ७.१९ अंकों का प्रस्तार बनाकर उसके शिखर में सोलह का अंक लिख दिया | उन्छवृत्ति-खेत की भूमि पर बिखरे धान्य की बालियों को एकत्र जाता है । उसके बाद उल्टे क्रम से एक तक अंक लिखे जाते हैं। करके उनसे अपनी जीविकायापन करना। हपु०४२.१४-१७ दे० जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएँ सुमित्र-२ की जाती हैं । इस तरह इस व्रत में चार सौ छियानवें उपवास और उज्जयिनी-शिप्रा के तट पर स्थित मालव जनपद के अन्तर्गत एक इकसठ पारणाएं की जाती हैं। यह व्रत भी पांच सौ सत्तावन दिनों नगरी। मपु० १६.१५३, २९.४७, ६३ राजा श्रीधर्मा के बलि, में पूर्ण होता है । हंपु० ३४.७८-८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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