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________________ आत्मप्रवावपूर्व-आदित्ययशा ४६ : जैन पुराणकोश आत्मप्रवावपूर्व-चौदह पूर्वो में सातवाँ पूर्व । इसमें छब्बीस करोड़ पद हैं जिनमें अनेक युक्तियों का संग्रह है तथा कर्तृत्व, भोक्तृत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि जीव के धर्मों और उनके भेदों का सयुक्तिक निरूपण है । हपु० २.९८, १०.१०८-१०९ आत्मभू-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३३, २५.१०० आत्मरक्ष-इन्द्र के चालीस हजार अंग-रक्षक देव । ये देव तलवार ऊँची उठाये हुए इन्द्र का वैभव प्रदर्शन करने के लिए इन्द्र के चारों ओर घूमते रहते हैं । मपु० १०.१९०, २२.२७, वीवच० ६.१३० आत्मरक्षा-आत्मा को कर्म बन्धन से मुक्त करानेवाले संयम का आचरण । 'राजा को स्वरूप के विषय में भी चिन्तन, मनन और आचरण करना चाहिये' इस प्रसंग को लेकर हुई एक परिचर्या । मपु० ४२.४९, १३६ आत्मस्वास्थ्य स्वरूप में स्थिरता । यथेष्ट वैराग्य और सम्यग्ज्ञान इस स्थिरता के कारण हैं । मपु० ५१.६७ आत्मांजन-पूर्व विदेह के चार वक्षारगिरियों में (त्रिकट, वैश्रवण, अंजन और आत्मांजन) एक वक्षारगिरि । हपु० ५.२२९ आत्मा-(१) अतति इति आत्मा-इस व्युत्पत्ति से नर, नारक आदि अनेक पर्यायों में गमनशील तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन लक्षणों युक्त जीव द्रव्य । यह शरीर संबंध से रूपी और मुक्त दशा में रूप रहित या अमूर्त होता है । आत्मा अनादिकालीन मिथ्यात्व के उदय से स्वयं ही स्वयं को दुःख देता है । इसके दो भेद है-संसारी और मुक्त। संसारी और मुक्त दशाओं के कारण ही इसके तीन भेद भी है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । आत्मा के अस्तित्व और अनस्तित्व को लेकर राजा महाबल के जन्मोत्सव के समय स्वयं बुद्ध, महामति, सम्भिन्नमति और शतमति नाम के दार्शनिक मंत्रियों ने अपने विचार प्रकट किये थे। मपु० ५.१३-८७, २४.१०७, ११०, ४६.१९३-१९५, ५५.१५, ६७.५, वीवच० १६.६६ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६५ आत्मानुपालन-इस लोक तथा परलोक संबंधी अपायों से आत्मा की रक्षा करना। मपु० ४२.११३ आत्मयज्ञ-क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि का, वैराग्य और अनशन की आहुतियों से शमन करना । वनवासी ऋषि, यति, मुनि और द्विज इस यज्ञ से मुक्ति को प्राप्त होते हैं । मपु० ६७.२०२-२०३ आत्रेय-(१) भरतक्षेत्र के उत्तर आर्यखण्ड का एक देश-तीर्थकर महावीर की विहारस्थली । हपु० ३.५, ११.६६-६७ (२) भार्गवाचार्य का प्रथम शिष्य । हपु० ४५.४५ आत्रेयी-कौशाम्बी नगरी के राजा सुमुख की दूतो। राजा सुमुख ने इसी दूती को वनमाला के पास भेजा था । हपु० १४.७७ आदाननिक्षेपण–पाँच समितियों में एक समिति । पिच्छी-कमण्डलु आदि उपकरणों को देखभाल कर रखना, उठाना । पपु० १४.१०८, हपु० २.१२५, पापु० ९.९४ माविकल्पेश-प्रथम स्वर्ग का इन्द्र-सौधर्मेन्द्र । मपु० ४९.२५ माविकल्याणक-गर्भ कल्याणक । मपु० ६१.१७ आदित्य-(१) लौकान्तिक देवों का एक भेद । ये ब्रह्मलोक के निवासी, पूर्वभवों के ज्ञाता, शुभ लेश्या एवं शुभ भावनावाले सौम्य, महाऋद्धिधारी, लोक के अन्त में निवास करने के कारण 'लौकान्तिक' इस नाम से विख्यात, तीर्थंकरों के प्रबोधनार्थ स्वर्ग से भूमि पर आनेवाले देव है। मपु० १७.४७-५०, हपु० २.४९, ९.६३-६४, वीवच. १२.२-८ (२) नौ अनुदिश विमानों में एक इन्द्रक विमान । हपु० ६.५४, ६४ (३) चम्पापुर का राजा । कालिन्दो में प्रवाहित पाण्डु के पुत्र कर्ण को इसी ने प्राप्त किया था। मपु० ७०.१०९-११४ (४) इस नाम के एक मुनि । इन्होंने चन्द्राभनगर के राजा धनपति को भविष्यवाणी की थी कि इसकी पुत्री पद्मोत्तमा को एक सर्प काटेगा और जीवन्धरकुमार उसका विष उतारेगा। मपु० ७५. , ३९०-३९८ आदित्यकेतु-धृतराष्ट्र और गान्धारी का उनहत्तरवां पुत्र । पापु० ८.२०१ आवित्यगति-(१) विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित गांधार देश की उशीरवती नगरी का विद्याधर राजा। इसकी शशिप्रभा नामा पटरानी थी । इन दोनों के हिरण्यवर्मा नाम का पुत्र हुआ था । किसी समय नष्ट होते हुए मेघ को देख यह विरक्त हो गया । इसने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली थी। मपु० ४६.१४५-१४६, पापु० ३.२२४ (२) चारणऋद्धिधारी युगल मुनियों में अरिंजय मुनि के साथी एक मुनि । मुनि युगन्धर के संघ के ये श्रेष्ठ मुनि थे। मपु० ५. १९३-१९४, ६२.३४८ (३) राक्षसवंश के प्रवर्तक रक्षस् और उसकी भार्या सुप्रभा का पुत्र । यह बृहत्कीर्ति का भाई, सदनपद्मा का पति तथा भीमप्रभ का पिता था। पपु० ५.३७८-३८२ आदित्यधर्मा-जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३९ आदित्यनगर-विजयाई पर्वत की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में प्रथम नगर । हपु० २२.८५, पपु० १५.६-७ आदित्यनाग-जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३२ आदित्य पराक्रम-आदित्य वंशी राजा सुवीर्य का पुत्र, महेन्द्रविक्रम का जनक । शरीर से निःस्पृह होकर इसने निर्ग्रन्थ दीक्षा ले ली थी। पपु० ५.४-१०, हपु० १३.१० श्रादित्यपाव-एक शैल-रावण की विद्या-सिद्धि की स्थली । मपु० ६८. ५१६-५१९ आदित्यमुख-इस नाम के बाण । सागरावर्त धनुष और ये बाण लक्ष्मण को प्राप्त थे । पपु० ५५.२७ आदित्ययशा-चक्रवर्ती भरत का पुत्र, अपरनाम अर्ककीर्ति । इसने अपने पुत्र स्मितयश को राज्य देकर तप के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया था। हपु०१३.१,७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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