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________________ १४८ ४४ : जैन पुराणकोश अस्त्र-आगम अन्न-संगीत से सम्बद्ध ताल की दो योनियों में एक योनि । पपु० २४.९ । आकार-ज्ञानोपयोग से वस्तुओं का भेद ग्रहण । मपु० २४.१०१-१०२ अस्वष्ट-भरतक्षेत्र के मध्य में स्थित एक देश । महावीर की विहारभूमि। आकाश-जीव, अजीव, धर्म, अधर्म और काल का अवगाहक द्रव्य । यह स्पर्श रहित, क्रिया रहित और अमूर्त तथा सर्वत्र व्याप्त है । अहमिन्द्र-कल्पातीत देव । ये देव नौ ग्रेवेयक, नौ अनुदिश और पाँच मपु० २४.१३८, हपु० ७.२, ५८.५४ अनुत्तर विमानों में रहते हैं । ये देव "मैं ही इन्द्र हूँ" ऐसा मानने- आकाशगता-दृष्टिवाद अंग के पाँच भेदों में चूलिका एक भेद है और वाले और असूया, परनिन्दा, आत्मश्लाघा तथा मत्सर से दूर रहते चलिका के पाँच भेदों में एक इस नाम का भेद है । हपु० १०.१२३हुए केवल सुखमय जीवन बिताते हैं। इनकी आयु बाईस से लेकर १२४ तेतीस सागर प्रमाण तक की होती है । ये महाद्य तिमान्, समचतुरस्र- आकाशगामिनी-विद्याधरों को प्राप्त एक विद्या। मपु० ६२.३९२, संस्थान, विक्रियाऋद्धिधारी अवधिज्ञानी, निष्प्रविचारी। (मैथुन ४००, पपु० ११.१५३ रहित) और शुभ लेश्याओंवाले होते हैं। मपु० ११.१४१-१४६, आकाशध्वज-मृदुकान्ता का पति, राजकुमारी उपरम्भा का पिता और १५३-१५५, १६१, २१८, पपु० १०५.१७०, हपु० ३.१५०-१५१ नलकूबर का ससुर । पपु० १२ १४६-१५१ अमिन्त्राचार्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. आकाशवल्लभ-विजया पर्वत को उत्तरश्रेणी में स्थित एक नगर । पपु० ३.३१४ अहिंसाणुव्रत-पांच अणुव्रतों में इस नाम का प्रथम अणुव्रत । इसमें मन, आकाशस्फटिकस्तम्भ-आकाश के समान स्वच्छ इस नाम का एक स्फटिकवचन और काय तथा कृत-कारित और अनुमोदना से त्रस जीवों की स्तम्भ । सर्वप्रथम राजा वसु ने इसे जाना था। मपु० ६७.२७६-२७९ यत्न पूर्वक रक्षा की जाती है । इसके बंध, वध, छेदन, अतिभारारोण आकिंचन्य-धर्मध्यान संबंधी उत्तम क्षमा आदि दस भावनाओं के अन्तर्गत और अन्नपाननिरोध ये पांच अतिचार होते हैं। हपु० ५८.१३८, एक भावना। कायोत्सर्ग पूर्वक शरीर से ममता त्याग कर त्रियोग १६३-१६५, वीवच० १८.३८ द्वारा इसका अनुष्ठान किया जाता है । मपु० ३६.१५७-१५८, पापु० अहिंसा महाव्रत-प्रथम महाव्रत । काय, इन्द्रियाँ, गुणस्थान, जीवस्थान, २३.६६, वीवच० ६.१३ कुल और आयु के भेद तथा योनियों के नाना विकल्पों का आगम- आक्रंदन-असातावेदनीय कर्म का एक आस्रव-कारण-निज और पर के रूपी चक्षु के द्वारा अच्छी तरह अवलोकन करके बैठने-उठने आदि विषय में सन्ताप आदि के कारण अश्रुपात सहित रुदन करना। हपु० क्रियाओं में छः काय के जीवों के वध-बन्धन आदि का त्याग करना । ५८.९३ इस महाव्रत की स्थिरता के लिए पाँच भावनाएं होती है। वे हैं- आक्रोश-(१) एक परीषह-दूसरों के द्वारा उत्तेजित किये जाने पर भी सम्यवचनगुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, आलोकित-पान-भोजन, ईर्या- शरीर के प्रति निःस्पृह रहते हुए कषायों को हृदय में स्थान नहीं समिति और आदान-निक्षेपण समिति । मपु० २०.१६१, ३४.१६८- देना, उन पर विजय प्राप्त करना । मपु० ३६.१२१ १६९, हपु० २.११६-११७, ५८.११७-११८, पापु० ९.८४ (२) इस नाम का एक वानरवंशी नृप । पपु० ६०.५-६ अहिंसा शुद्धि-निष्परिग्रहता एवं दयालुता से युक्त होना । मपु० ३९. आक्ष पिणी-कथा का एक भेद । वक्ता अपने मत को स्थापना के लिए ३० दूसरों पर आक्षेप करनेवाली या मत-मतान्तरों की आलोचना करने अहिदेव-कौशाम्बी नगरी के निवासी वणिक् बृहद्घन और कुरुविन्दा वाली कथा कहता है । मपु० १.१३५, ४७.२७५, पपु० १०६.९२ का ज्येष्ठ पुत्र, महादेव का सहोदर । इन दोनों भाइयों ने पिता के आख्यान-(१) प्राचीन कालिक किसी राजा आदि की कथा। मपु० मरने पर अपनी सम्पत्ति बेचकर एक रल खरीद लिया था। यह ५.८९, ४६.११२-१४२ रत्न जिस भाई के पास रहता वह दूसरे भाई को मारने की इच्छा (२) पदगत गान्धर्व की एक विधि । हपु० १९.१४९ करने लगता था, अतः परस्पर उत्पन्न खोटे विचार एक दूसरे को आगति-तालगत गान्धर्व का एक प्रकार । हपु० १९.१५१ बताकर और रत्न माँ को देकर दोनों विरक्त हो गये थे । रत्न पाकर आगम--सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित, समस्त प्राणियों का हितैषी, सर्व दोष माँ के मन में भी उन पुत्रों को विष देकर मारने के भाव उत्पन्न हुए रहित शास्त्र । इसमें नय तथा प्रमाणों द्वारा पदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, थे इसलिए वह भी इस रत्न को यमुना में फेंककर विरक्त हो गयी काल, भव, भाव और चारों पुरुषार्थों का वर्णन किया गया है। यह थी । पपु० ५५.६०-६४ प्रमाणपुरुषोदित रचना है। इसके मूलकर्ता तीर्थंकर महावीर और अहोरात्र-दिन-रात, तोस मुहूर्त का काल । हपु० ७.२०-२१ उत्तरकर्ता गौतम गणधर थे। उनके पश्चात् अनेक आचार्य हुए जो प्रमाणभूत है । ऐसे आचार्यों में तीन केवली, पांच चौदह पूर्वो के ज्ञाता आकर-पाषाण, रजत, स्वर्ण, मणि, माणिक्य आदि की खान । ऐसी (श्रुतकेवलो) पाँच ग्यारह अंगों के धारक, ग्यारह दसपूर्वो के जानकार खान के साहचर्य से निकटवर्ती ग्राम या नगर भी आकर कहलाता है। और चार आचारांग के ज्ञाता इस प्रकार पाँच प्रकार के मुनि हुए मपु० १६.१७६, हपु० २.३ . है । मुनियों के नाम हैं-तीन केवली, इन्द्रभूति (गौतम) सुधर्माचार्य आ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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