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________________ अशोकदेव-अश्वत्थामा (५) तीर्थंकरों के केवलज्ञान होते ही रत्नमयी पुष्पों से अलंकृत रक्ताभ पल्लवों से युक्त विपुल स्कन्धवाला इस नाम का एक वृक्ष । तीर्थकर मल्लिनाथ ने इसी वृक्ष के नीचे दीक्षा ली थी । पपु० ४.२४, २०.५५ (६) समवसरण भूमि का शोकनाशक वृक्ष । यह वृक्ष जिन प्रतिमाओं से युक्त, ध्वजा घंटा आदि से अलंकृत और वज्रमय मूलभागवाला होता है। इसे चैत्य पादप कहा गया है। मपु० २२.१८४१९९, २३ ३६-४१ (७) एक शोभा-वृक्ष जो स्त्रियों के चरण से ताड़ित होकर विकसित होता है । मपु० ९.९, ६.६२, पापु० ९१२ (८) अष्टप्रातिहार्यों में प्रथम प्रातिहार्य । मपु० ७.२९३, २४.४६ (९) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३३ अशोकदेव-जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देश को मणालवती नामा नगरी का निवासी एक वणिक् । इसकी भार्या जिनदत्ता का सुकान्त नाम का पुत्र था। इसो नगर का निवासी श्रीदत्त अपनी पुत्री रतिवेगा को इसी नगर के रतिकर्मा श्रेष्ठी के पुत्र भवदेव को देना चाहता था किन्तु भवदेव के धन कमाने के लिए बारह वर्ष तक बाहर रहने से रतिवेगा अशोकदेव के पुत्र सुकान्त को दे दी गई थी। मपु० ४६.१०१-१०६, पापु० ३.१८७-१९५ अशोकपुर-(१) धातकीखण्ड द्वीप के मेरु पर्वत के पश्चिम की ओर स्थित विदेह क्षेत्र का एक नगर । मपु० ७१.४३२ (२) अशोकवन की उत्तरपूर्व दिशा में स्थित एक नगर । यह अशोक नामक देव की निवासभूमि था । हपु० ५.४२६ अशोकमालिनी-प्रमदवन की इस नाम की एक वापी । पपु० ४६.१६० अशोकलता-बुध और उसको भार्या मनोवेगा की पुत्री। दशानन ने गान्धर्वविधि से इसके साथ विवाह किया था। पपु० ८.१०४, १०८ अशोकवन-(१) संख्यात द्वीपों के अनन्तर जम्बूद्वीप के समान दूसरे जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा में स्थित विजयदेव के नगर से बाहर पच्चीस योजन आगे के चार वनों में एक वन । यह बारह योजन लम्बा और पाँच सौ योजन चौड़ा है । हपु० ५.३९७, ४२१-४२६ (२) समवसरण के चार वनों में प्रथम वन । यह लालरंग के फल और पत्तों से युक्त अशोक के वृक्षों से विभूषित होता है। यहाँ प्राणियों का शोक नष्ट हो जाता है । मपु० २२.१८० (३) अयोध्या के राजा अजितंजय की कैवल्यभूमि । मपु० ५४.९४- जैन पुराणकोश : ४१ (३) ईहापुर नगर के राजा प्रचण्डवाहन और उनकी रानी विमलप्रभा की दस पुत्रियों में सबसे छोटी पुत्री । अन्य बहिनों के साथ अणु व्रत धारण करके यह श्राविका बन गयी थी। हपु० ४५.९६-९९ अश्मक-वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा रचित दक्षिण का एक देश । मपु० १६.१४३-१५२, हपु० ११.६९-७० अश्मगर्भ-(१) नीलमणि । जम्बवृक्ष का महास्कन्ध इसी वर्ण का है। हपु० ५.१७७-१७८ (२) मानुषोत्तर पर्वत की पूर्व दिशा के तीन कूटों में एक कूट । यह यशस्कान्त देव की निवासभूमि है । हपु० ५.६०२-६०३ अश्व-(१) भरतेश के चौदह रत्नों में एक चेतन रत्न । मपुर ३७.८३-८६ (२) पुत्री को दिये जानेवाले दहेज का अंग । मपु० ८.३६ अश्वकण्ठ-भविष्यत्कालीन चतुर्थ प्रतिनारायण । हपु० ६०.५७० अश्वकर्णक्रिया-चारित्र मोह की क्षपणा विधि । इसमें चारों कषायों की क्षीणता होती जाती है । इस क्रिया की विधि को वृषभदेव ने अनिवृत्तिकरण नाम के नवें गुणस्थान में ही पूर्ण किया। मपु० २०. २५९ अवक्रान्ता-षड्ज और मध्यम ग्रामों की चौदह मूर्च्छनाओं में छठी मूर्छना । हपु० १९.१६०-१६२ अश्वनीव-(१) प्रथम प्रतिनारायण । यह विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित अलका नगरी के राजा मयूरग्रीव और उसकी रानी नीलांजना का प्रथम पुत्र था। इसकी स्त्री का नाम कनकचित्रा था। इन दोनों के रत्नग्रीव, रत्नांगद, रत्नचूड़, रत्नरथ आदि पांच सौ पुत्र थे। हरिश्मश्रु तथा शतबिन्दु इसके क्रमशः शास्त्र और निमित्तज्ञानी मंत्री थे । रथनूपुर के राजा ज्वलनजटी की पुत्री के प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ को प्राप्त होने से रुष्ट होकर इसने त्रिपृष्ठ से संग्राम किया, उस पर चक्र चलाया किन्तु चक्र त्रिपृष्ठ की दाहिनी भुजा पर जा पहुंचा। बाद में इसी चक्र से यह त्रिपृष्ठ द्वारा मारा गया। बहु आरम्भ (परिग्रह) के द्वारा नरकायु के बन्ध से रौद्रपरिणामी होकर यह मरा और सातवें नरक गया। मपु० ६२.५८-६१, १४१-१४४, पपु० ४६.२१३, हपु० ६०.२८८-२९२, पापु० ४.१९-२१, वीवच० ३.१०४-१०५ (२) भविष्यत्कालीन सातवां प्रतिनारायण । हपु० ६०.५६८-५७० (३) एक अस्त्र । जरासन्ध द्वारा श्रीकृष्ण पर छोड़े गये इस अस्त्र ___ को कृष्ण ने ब्रह्मशिरस् अस्त्र से रोका था। हपु० ५२.५५ अश्वतंत्र-अश्वशास्त्र। इसमें अश्वों की जातियाँ और उनके लक्षण बताये गये हैं । मपु० ४१.१४४, १६.१२३ अश्वतरी-सवारी के लिए प्रयुक्त एक पालतू पशु-खच्चर । अपरनाम वेगसरी । मपु० ८.१२०, २९.१६० अश्वत्थ-तीर्थकर अनन्तनाथ का दीक्षावृक्ष (पीपल) । पपु० २०.५० अश्वत्थामा-कृष्ण-जरासन्ध युद्ध में जरासन्ध के पक्ष का योद्धा । द्रोणा चार्य एवं अश्विनी का पुत्र । यह धनुर्विद्या में इतना निपुण था कि अर्जुन ही इसका एक प्रतिस्पर्धी था। पाण्डवपुराण में इसकी जननी (४) चन्दना की क्रीडा-स्थली । मपु० ७५.३७ अशोका-(१) विजया पर्वत की उत्तरश्रेणो की एक नगरी। यह कुमुदा देश की राजधानी थी । मपु० १९.८१, ८७, ६३.२०८-२१६, हपु० ५.२६२ (२) नन्दीश्वर द्वीप की पश्चिम दिशा के अंजनगिरि की पूर्व दिशा में स्थित वापी । हपु० ५.६६२ www.jainelibrary.or For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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