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________________ ३८: जैन पुराणकोश अर्हचर्म-अवग्रह अहंटर्म-मुनिधर्म । मुमुक्षु इस धर्म का आश्रय लेकर परिग्रह को त्यागते अलका-(१) विजया, पर्वत की उत्तरश्रेणी का नगर । अपरनाम हैं और मुनि बनकर तप करते हैं । पपु० ३५.१०१-१०३ अलकापुर एवं अलकापुरी । मपु० ४.१०४-१२१, १९.८२, ८७, ६२. अहवभक्ति-(१) सोलह कारण भावनाओं में दसवीं भावना-जिनेन्द्र ५८, पापु० ५.६५, वीवच० ३.६८ के प्रति मन, वचन और काय से भावशुद्धिपूर्वक श्रद्धा रखना। मपु० (२) धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिण की ओर विद्यमान इष्वाकार ६३.३२७, हपु० ३४.१४१ पर्वत से पूर्व की ओर भरतक्षेत्र में स्थित एक देश । मपु० ५४.८६ (२) राक्षसवंशी राजा । उग्रश्री के पश्चात् लंका का स्वामित्व (३) भदिल नगर की एक वणिक-पुत्री। इसी के मृत युगल पुत्रों इसे ही प्राप्त हुआ था। यह माया, पराक्रम, विद्या, बल और कान्ति को नैगमर्ष देव देवकी के पास ले जाता और देवकी के पुत्रों को इसके का धारी था। पपु० ५.३९६-४०० पास लाता था । मपु० ७०.३८४-३८६ अर्हन्नन्दन-एक मुनि धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी (४) मलय देश के भद्रिलपुर नगर के सुदृष्टि सेठ की भार्या । के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम के देश में स्थित क्षेमपुर नगर का राजा मपु० ७१.२९३, हपु० ३३.१६७ नन्दिषेण और उसका पुत्र धनपति दोनों इन्हीं से दीक्षित होकर आयु (५) मेघदल नगर के निवासी मेघ सेठ की सेठानी । इसकी चारुके अन्त में संन्यासमरण द्वारा अहमिन्द्र हुए थे। पूर्व पुण्डरीकिणी लक्ष्मी नाम की एक कन्या थी । हपु० ४६.१४-१५ नगरी का राजा रतिषेण भी इन्हीं से दीक्षित हुआ था। मपु० ५१. अलक्तक-पैरों के सौन्दर्य को बढ़ानेवाला महावर । मपु० ७.१३३ २-३, १२-१३, ५३.२-१५, ६५. २-९ अलातचक्र-शीघ्रता से फिरकी लेते हुए अंगावयवों के संचार से युक्त अर्हन्मुनि-पदमपुराण के कर्ता रविषेण के दादा-गुरु । पपु० १२३.१६८ __ नृत्य । मपु० १४.१२८ अलंकार-स्वर के श्रुति, वृत्ति, स्वर, ग्राम, वर्ण, अलंकार, मूर्च्छना, ___अलाबु-एक सुषिर वाद्य-तुम्बी। मपु० १२.२०३ ___ धातु और साधारण आदि भेदों में एक भेद । हपु० १९.१४६-१४७ अलाभ-इस नाम का एक परीषह-सदा संतुष्ट रहना। मपु० ३६.१२७. अलंकारविषि-शारीर-स्वर के जाति, वर्ण, स्वर, ग्राम, स्थान, साधारण अलुब्धता-आहारदाता के सात गुणों में एक गुण-निर्लोभिता । मपु० क्रिया और अलंकारविधि इन भेदों में अन्तिम भेद । हपु० १९.१४८ २०.८२-८४ दे० दान अलंकार शास्त्र-व्याकरण, छन्द, और अलंकार वाङ्गमय के इन तीन अलेप-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८५ अंगों में तीसरा अंग। मपु० १६.१११ अलोकाकाश-आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भेदों में अलंकार संग्रह-अनुप्रास, यमक, उपमा और रूपक आदि शब्दालंकारों दूसरा भेद-चौदह राजु प्रमाण लोक के बाहर का अनन्तआकाश । और अर्थालंकारों का दस प्राणों (गुणों) आदि का निरूपक शास्त्र । यह अनन्त विस्तारयुक्त तथा अनन्त प्रदेशों से युक्त और अन्य द्रव्यों मपु० १६.११५ से रहित है । यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अभाव होने अलंकारोवय-पृथिवी के भीतर अत्यन्त गुप्त इस नाम का एक नगर । से जीव और पुद्गल की न गति है और न स्थिति । इसके मध्य में यह छः योजन गहरा, एक सौ साढ़े इकतीस योजन और डेढ़ कला असंख्यात प्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित अनादि और अनन्त प्रमाण चौड़ा था। इसमें बड़े-बड़े महल थे, यहाँ पहुँचने के लिए लोक स्थित है। पपु० ३१.१५, हपु० ४.१-४, २.११०, वीवच० १६.१३३ दण्डक पर्वत के गुहाद्वार से नीचे जाने पर तोरणों से युक्त महाद्वार से प्रवेश करना पड़ता था। सीता-हरण के बाद यहाँ के राजा विराधित। अलोलुप-धृतराष्ट्र और गान्धारी का अस्सोवा पुत्र । पापु०८.२०२ के निवेदन पर राम-लक्ष्मण ने कुछ समय यहाँ निवास किया था। अवकीर्ण-घृतराष्ट्र और गान्धारी का अठारहवां पुत्र । पापु० ८.१९५ अवक्रान्त-प्रथम पृथिवी धर्मा के बारहवें प्रस्तार का इन्द्र क बिल । पपु० ५.१६३-१६६, ४३.२४-२५, ४५.९२-९९ अलंधन-लंका द्वीप का एक देश । पपु० ६.६८ हपु० ४.७६-७७ दे० रत्नप्रभा अलंबुष-विजय का अन्तिम पुत्र, निष्कम्प, अकम्पन, बलि, युगन्त, और अवगाढ़ सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन के दस भेदों में नवां भेद । यह अंगकेशरिन् का अनुज । हपु० ४८.४८ प्रविष्ट और अंग बाह्य श्रुत के रहस्य-चिन्तन से क्षीणमोह योगी के अलक-(१) राम के भाई भरत के साथ दीक्षित एक राजा । इसने पर मन में उत्पन्न होता है। मपु० ७४.४३९-४४०, ४४८, ५४.२२६, मात्मपद को प्राप्त किया था । पपु०८८.१-५ वीवच० १९.१५१ दे० सम्यक्त्व (२) स्त्री-मुख का सौन्दर्य बढ़ानेवाले चूर्ण कुन्तल । मपु० १२.. अवगाहनत्व-सिद्ध जीव के आठ गुणों में एक गुण । गहन वन में तप २२१ करने वाले मुनि को प्राप्य यह गुण तीनों लोकों के जीवों को स्थान अलकपुर-प्रथम प्रतिनारायण अश्वग्रीव का नगर । पपु० २०.२४२ देने में समर्थ होता है। मपु० २०.२२२-२२३, ३९.१८७ दे० सिद्ध अवग्रह-मतिज्ञान के चार भेदों में पहला भेद-पाँच इन्द्रियों और मन मलकसुन्दरी-सुजन देश में नगरशोभ नगर के राजा दृढ़ मित्र के भाई इन छ: से होनेवाला वस्तु का प्रथम दर्शन और उस दर्शन से होने सुमित्र की पुत्री और श्रीचन्द्रा की प्रियसखी । मपु० ७५.४३८-४४४ वाला वस्तु का सामान्य बोध । हपु० १०.१४६-१४७ दे० मतिज्ञान २४४ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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