SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट जैन पुराणकोश : ४९१ अनन्त-चतुष्टय अनागत बलभद्र महापुराण के अनुसार हरिवंशपुराण के अनुसार १. चन्द्र २. महाचन्द्र २. महाचन्द्र ३. चक्रधर ३. चन्द्रधर ४. हरिचन्द ४. सिंहचन्द्र ५. सिंहचन्द्र ५. हरिचन्द्र ६. वरचन्द्र ६. श्रीचन्द्र ७. पूर्णचन्द्र ७. पूर्णचन्द्र ८. सुचन्द्र ८. सुचन्द्र ९. श्रीचन्द्र ९. बालचन्द्र मपु०७६.४८५-४८६ हपु० ६०.५६८-५६९ अनागत नारायण महापुराण के अनुसार हरिवंशपुराण के अनुसार १. नन्दि मपु० ७६.४८७ १. नन्दी हपु० ६०.५६६ २. नन्दिमित्र , २. नन्दिमित्र ३. नन्दिषेण , ३. नन्दिन ४. नन्दिभूति मपु० ७६ ४. नन्दिभूतिक ५. महाबल ६. महाबल ६. अतिबल ७. अतिबल ७. बलभद्र ८. त्रिपृष्ठ मपु० ७६.४८९ ८. द्विपृष्ठ हपु० ६०.५६७ ९. द्विपृष्ठ ९. त्रिपृष्ठ अनागत प्रतिनारायण १. श्रीकण्ठ ४. अश्वकण्ठ ७. अश्वग्रीव २. हरिकण्ठ ५. सुकण्ठ ८. हयग्रीव ३. नीलकण्ठ ६. शिखिकण्ठ ९. मयूरग्रीव __ हपु ६०.५६९-५७० अनागत रुद्र १. अनन्त दर्शन २. अनन्त ज्ञान ३. अनन्त सुख ४. अनन्त वीर्य मपु० ४२.४४ अष्ट प्रातिहार्य १. अशोक वृक्ष का होना। २. देवकृत पुष्प-वृष्टि । ३. देवों द्वारा चौंसठ चमर ढुराया जाना। ४. प्रभामण्डल का होना । ५. दुन्दुभि ध्वनि का होना। ६. सिर पर त्रिछत्र होना। ७. सिंहासन का रहना। ८. दिव्यध्वनि का होना। हपु० ३.३१-३८ अतिशय जन्मकालीन १० अतिशय १. मल-मूत्र रहित शरीर का होना । २. स्वेद रहित शरीर का होना। ३. श्वेत रुधिर का होना । ४. वज्रवृषभनाराचसंहनन का होना । ५. समचतुस्रसंस्थान का होना। ६. अत्यन्त सुन्दर रूप । ७. शरीर का सुगन्धित होना। ८. शरीर का १००८ लक्षणों से युक्त होना । ९. अनन्तवीर्य का होना। १०. हितमितप्रिय वचन बोलना । हपु० ३.१०-११ केवलज्ञानकालीन १० अतिशय १. नेत्रों की पलकें नहीं झपकना । २. नख और केशों का नहीं बढ़ना । ३. कवलाहार का अभाव होना। ४. वृद्धावस्था का अभाव । ५. शरीर को छाया का अभाव । ६. चतुर्मुख दिखाई देना। ७. दो सौ योजन तक सुभिक्ष रहना। ८. उपसर्ग का अभाव । ९. प्राणि-पीड़ा का अभाव । १०. आकाशगमन । ११. सर्व विद्याओं का स्वामीपना । १. प्रमद २. सम्मद ३. हर्ष ४. प्रकाम ७. हर १०. काम ५. कामद ८. मनोभव ११. अंगज ६. भव ९. मार हपु० ६०.५७१-५७२ अर्हन्त-गुण अनन्त चतुष्टयप्रातिहार्यअतिशय नोट-हरिवंशपुराणकार ने केवलज्ञान के समय प्रकट होनेवाले दस अतिशयों के स्थान में ग्यारह अतिशय बताये हैं । उन्होंने 'वृद्धावस्था का अभाव' नामक अतिशय अधिक बताया है। इसी प्रकार सुभिक्षिता में सौ योजन के स्थान में दो सौ योजन का उल्लेख किया है। हपु० ३.१२-१५ योग-४६ मपु० ४२.४४-४६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy