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________________ ४७८ : जैन पुराणकोश हरवतो-हरिपुर (२) अनागत सातवाँ रुद्र । हपु० ६०.५७१-५७२ हरवती-भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के वरुण या इला पर्वत की एक नदी । इसका अपर नाम हरिद्वती था । कुसुमवती, सुवर्णवती, गजवती और चण्डवेगा नदियों में इसका संगम हुआ है। मपु० ५९.११८-११९, हपु० २७.१२-१३ हरि-(१) चम्पापुर के राजा आर्य और रानी मनोरमा का पुत्र । जगत में इसी राजा के नाम पर हरिवंश की प्रसिद्धि हुई। इसके पुत्र का नाम महागिरि था । वृषभदेव ने इसे आदर सत्कार पूर्वक महामाण्डलिक राजा बनाया था। मपु० १६.२५६-२५९, पपु० २१.६-८, हपु० १५.५३-५९ (२) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३६ (३) राजा अमररक्ष के पुत्रों द्वारा बसाये गये दस नगरों में एक नगर । पपु० ६.६६-६८ (४) बन्दर, सिंह, विष्णु तथा इन्द्र का पर्यायवाची नाम । हपु० ५५.११७ (५) चन्द्रपुर नगर का राजा। इसकी रानी धरा और पुत्र व्रतकीर्तन था। पपु० ५.१३५-१३६ (६) भरत के साथ दीक्षित एक नृप । पपु० ८८.१-५ हरिकटि-राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ६०.५२-५३ हरिकण्ठ-(१) अलका नगरी के राजा अश्वग्रीव विद्याधर का दूसरा । नाम । हपु० २८.४३ दे० अश्वग्रीव (२) आगामी दूसरा प्रतिनारायण । हपु० ६०.५६९ हरिकांत-(१) भवनवासी देवों का बारहवाँ इन्द्र । वीवच० १४.५५ (२) महाहिमवान् पर्वत का छठा कूट । हपु० ५.७२।। हरिकान्ता-(१) महापद्म ह्रद से निकली हरिक्षेत्र की एक प्रसिद्ध नदी। यह चौदह महानदियों में छठी नदी है। मपु० ६३.१९५, हपु० ५. १२३, १३३ (२) किष्कप्रमाद नगरी के राजा ऋक्षरज की रानी। यह नल और नील की जननी थी । पपु० ९.१३ (३) इस नाम की एक आर्यिका। वेदवती ने इन्हीं से दीक्षा लो थी । पपु० १०६.१४६, १५२ हरिकेतु-(१) भरतक्षेत्र के काम्पिल्य नगर का राजा। यह दसवें चक्रवर्ती हरिषेण का पिता था। इसकी रानी वप्रा थी । पपु० २०. १८५-१८६ (२) शिवंकरपुर नगर के राजा अनिलवेग और रानी कान्तवती का पुत्र । भोगवती का यह भाई था। इसके प्रयत्न से श्रीपाल को सर्वव्याधिविनाशिनी विद्या प्राप्त हुई थी। मपु० ४७.४९-५०, ६०.६२ हरिक्षेत्र-जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रों में तीसरा क्षेत्र । इसका विस्तार ८४२१३ र योजन है । हपु० ५.१३-१४, पपु० १०५.१५९-१६० हरिगिरि-भरतक्षेत्र में भोगपुर नगर के हरिवंशी राजा। प्रभंजन और रानी मुकण्डू के पुत्र सिंहकेतु की वंश परम्परा में हुआ एक राजा। मपु० ७०.७४-७७, ८७-९१ हरिग्रोव-राक्षसवंशी एक यशस्वी राजा। इसे सुग्रीव से राज्य प्राप्त हुआ था। इसने श्रोग्रोव को राज्य देकर मुनिव्रत धारण कर लिया था । पपु० ५.३९०-३९१ हरिघोष--एक कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.१४ हरिचन्द्र-(१) अलका नगरी के राजा अरविन्द विद्याधर का ज्येष्ठ पुत्र और कुरुबिन्द का भाई। पिता ने अपना दाहज्वर मिटाने के लिए इससे उत्तरकुरु के वन में जाने की इच्छा प्रकट की थी। इसने भी आकाशगामिनी विद्या को उन्हें उत्तरकुरु ले जाने के लिए कहा था किन्तु विद्या उन्हें वहाँ नहीं ले जा सकी थी। इससे पिता की असाध्य बीमारी जानकर यह उदास हो गया था। मपु० ५.८९१०१ (२) सिद्धकूट के एक चारणऋद्धिधारी मुनि । प्रभाकरपुर के राजा सूर्यावर्त का पुत्र रश्मिवेग इन्हीं से दीक्षा लेकर मुनि हुआ था। मपु० ५९.२३३, हपु० २७.८०-८३ (३) आगामी चौथे बलभद्र । मपु० ७६.४८६ (४) एक विद्याधर । यह विद्याधर रक्तोष्ठ का पुत्र और पूश्चन्द्र का पिता था । पपु० ५.५२ (५) जम्बूद्वीप के मृगांकनगर का राजा । इसकी रानी प्रियंगुलक्ष्मी और पुत्र सिंहचन्द्र था । पपु० १७.१५०-१५१ हरिणाश्वा--मध्यमग्राम की दूसरी मूच्छना। यह गांधार स्वर में होती है । हपु० १९.१६३, १६५ हरित--जम्बूद्वीप के हरितक्षेत्र की प्रसिद्ध नदी। चौदह महानदियों में यह पांचवीं नदी है। यह तिगिछ सरोवर से निकलती है। मपु० ६३.१९५, हपु० ५.१२३, १३३ हरिताल-मध्यलोक के अन्तिम सोलह द्वीप और सागरों में दूसरा द्वीप एवं सागर । हपु० ५.६२२ हरिदास-जम्बूदीप के भरतक्षत्र में सद्रतुनगर के भावन वणिक् का पुत्र । इसने व्यसनों में पड़कर पिता का धन नष्ट कर दिया था और भ्रान्ति में पड़कर अपने पिता को भो मार डाला था। अन्त में यह भी दुःखपूर्वक मरा। इस प्रकार संक्लेश पूर्वक मरकर पिता और पुत्र दोनों कुत्ते हुए । पपु० ५.९६-१०८ हरिद्वती-भरतक्षेत्र में विजया पर्वत के दक्षिणभाग के समीप प्रवाहित पर्वत की पाँच नदियों में प्रथम नदी । हपु० २७.१२-१३ दे० हरवती हरिष्वज-(१) अक्षपुर नगर का राजा। इसकी रानी लक्ष्मी और पुत्र आरंदम था । पपु० ७७.५७ (२) कुरुवंशी एक राजा । हपु. ४५.१४ हरिनाग-लक्ष्मण के अढ़ाई सौ पुत्रों में एक पुत्र । पपु० ९४.२७-२८ हरिपति-नागनगर का राजा । इसकी रानी मनोलता और पुत्र कुलकर था। पपु०८५.४९-५० हरिपुर-(१) भरतक्षेत्र के विजयार्घ पर्वत की उत्तरश्रेणी का नगर । दक्षिणश्रेणी में भी इस इस नाम का एक नगर कहा है । पपु० २१.. ३-४, हपु० १५.२२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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