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________________ भी नापार जनजाराधना कोषकोश : ४६९ सौदामिनीप्रभ-सौस्न ना सौदामिनीप्रभ-विजया पर्वत को दक्षिणश्रेणी के कनकपुर नगर के राजा हिरण्याभ और रानी सुमना का पुत्र । पपु० १५.३७-३८ सौदास--(१) अयोध्या के राजा नघुष तथा सिंहिका रानी का पुत्र । राजा समस्त शत्रुओं को वश में कर लेने के कारण सुदास कहलाता था तथा राजा का पुत्र होने के कारण यह इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था। नरमांसभक्षी हो जाने के कारण इसे राज्य से निकालकर इसकी रानी कनकाभा से उत्पन्न पुत्र सिंहरथ को राजा बनाया गया था । राज्य से निकाले जाने के कारण यह दक्षिण की ओर गया । वहाँ दिगम्बर मुनि से धर्म श्रवण करके इसने अणुव्रत धारण किये। सौभाग्य से इसे महापुर का राज्य प्राप्त हो गया था। इसने अन्त में पुत्र से युद्ध किया तथा उसे पराजित करके पुनः राजा बनाकर यह तपोवन चला गया था । हरिवंशपुराण के अनुसार यह कलिंग देश के कांचनपुर नगर के राजा जितशत्रु का पुत्र था। मनुष्यों के बच्चों को भी खाने लगने से यह वसुदेव द्वारा मारा गया था । पपु० २२.११४ ११५, १३१, १४४-१५२, हपु० २४.११-२३ सौधर्म-सौलह कल्पों (स्वर्गों) में प्रथम कल्प। सौधर्म और ऐशान कल्पों में इकतीस पटल हैं। उनके नाम हैं-१. ऋतु २. विमल ३. चन्द्र ४. वल्गु ५. वीर ६. अरुण ७. नन्दन ८. नलिन ९. कांचन १०. रोहित ११. चंचत् १२. मारुत १३. ऋद्धोश १४. बैडूर्य १५. रुचक १६. रुचिर १७. अर्क १८. स्फटिक १९. तपनीयक २०. मेघ २१. भद्र २२. हारिद्र २३. पद्म २४. लोहिताक्ष २५. वज्र २६. नन्द्यावर्त २७. प्रभंकर २८. प्रष्टक २९. जगत् ३० मित्र और ३१ प्रभा । इस स्वर्ग में बत्तीस लाख विमान है। विमानों में ६४०००० विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। यहाँ के भवनों के मूल शिलापीठ की मोटाई ११२१ योजन और चौर चौड़ाई १२० योजन है। यहाँ के भवन काले, नीले, लाल, पीले और सफेद रंग के होते हैं । ये घनोदधि का आधार लिये रहते हैं। यहाँ देवों के मध्यमपीत लेश्या होती है। देवों का अवधिज्ञान का विषय धर्मा पृथिवी तक है। यहाँ देवियों के उत्पत्ति-स्थान छः लाख हैं। यहां के प्रथम ऋतु विमान और मेरु की चूलिका में बाल मात्र का अन्तर है । ऋतु विमान ४५ लाख योजन विस्तृत है । इस कल्प में संख्यात योजन विस्तारवाले विमानों से चौगुने असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान हैं । हपु० ३.३६, ६.४४-४७, ५५, ७८-१२१ दे० कल्प सौधर्मेन्द्र-सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र । यह जिन शिशु को अपनी अंक में बैठाकर सुमेरु पर्वत पर ले जाता है तथा वहाँ एक हजार कलशों से उनका अभिषेक करता है। मपु० १३.४७, वोवच० ८.१०३, ९. २-१८ सोनन्दक-चक्रवर्ती भरतेश का एक असि रत्न । इस नाम की एक तलवार सुनन्द यक्ष ने लक्ष्मण को दी थी। मपु० ३७.१६७, ३८. ६४६, हपु० ५३.४९ चौमनस-(१) रुचकगिरि की पश्चिम दिशा का छठा कूट । यहाँ दिक्कुमारी नवमिका देवी रहती है । हपु० ५.७१३ (२) सौमनस्य पर्वत का दूसरा कट । हपु० ५.२१२, २२१ (३) सुमेरु पर्वत का तीसरा वन । यह नन्दनवन के समान है तथा नन्दनवन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर स्थित है। मपु० ५.१८३, पपु० ६.१३५, हपु० ५.२९५, ३०८, वीवच० ८.११३११४ (४) भरतक्षेत्र के विजयाध पर्वत की उत्तर श्रेणी का साठवाँ नगर । हपु० २२.९२ (५) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक नगर । यहाँ तीर्थकर सुमतिनाथ की प्रथम पारणा हुई थी। मपु० ५१.७२ (६) विदेहक्षेत्र में विद्यमान एक गजदन्त पर्वत । मपु० ६३.२०५ सौमनस्य-(१) सुमेरु पर्वत को पूर्व-दक्षिण दिशा में स्थित एक रजतमय पर्वत । इसके सात कूट है-सिद्धकूट, सौमनसकूट, देवकुरुकूट, मंगलकूट, विमलकट, कांचनकूट और विशिष्टक कूट । मपु० ६३. १४१, हपु० ५.२१२, २२१ (२) ऊर्ध्वग्र वेयक का दूसरा इन्द्रक विमान । हपु० ६.५३ सौमिनी-त्रिशृंगनगर के सेठ प्रियमित्र की स्त्री । नयनसुन्दरी इन दोनों की एक कन्या थी, जो युधिष्ठिर को दी गयी थी। पापु० १३. १०१,११०-११२ सौम्य-(१) पाँचवाँ अनुदिश विमान । हपु० ६.६३ (२) हस्तिनापुर का एक पर्वत । यहाँ अकम्पनाचार्य आदि मुनियों ने आतापनयोग धारण किया था । हपु० ७०.२७९ (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. .१७८ सौम्यरूपक-छठा अनुदिश विमान । हपु० ६.६३ सौम्यवक्त्र-रावण का पक्षधर एक दोद्धा । यह राम-रावण युद्ध में रावण की ओर से युद्ध करने अश्ववाही रथ पर बैठकर सेना सहित रणांगण में पहुंचा था। पपु० ५७.५५ सौराष्ट्र-भरतक्षेत्र का एक देश । अनेक वनाधिपों ने इस देश में उत्पन्न हुए हाथी चक्रवर्ती भरतेश को भेंट में दिये थे। तीर्थंकर महावीर ने यहाँ विहार किया था। मपु० ३०.९८, पापु० १.१३३ दे० सुराष्ट्र सौरोपुर-भरतक्षेत्र का एक प्राचीन नगर । यहाँ यादवों ने वसुदेव के साथ कुछ दिन निवास किया था। पापु० ११.४१ सौर्यपुर-समुद्रविजय आदि यादव राजाओं का नगर । हपु० ३१.२५, ३७.१, दे० सौरीपुर सौर्पक-वसुदेव का पक्षधर एक विद्याधर । यह युद्ध में राजा चण्डवेग से पराजित हो गया था। हपु० २५.६३ सौवीर-भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतक्षेत्र के उत्तर आर्यखण्ड का एक देश । इसका निर्माण वृषभदेव के समय में हुआ था। भरतेश का यहाँ शासन था। मपु० १६.१५५, हपु० ११.६७ सौवीरी-संगीत के मध्यमग्राम की प्रथम मूच्र्छना। हपु० १९ १६३ सौस्न-एक योद्धा । राम-लक्ष्मण और वनजंघ के बीच हुए युद्ध में इसने वनजंघ की ओर से युद्ध किया था। पपु० १०२.१५६ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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