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________________ ४६६ : जैन पुराणकोश सूर्यमूर्ति-सैन्यशिविर युद्ध में इसने जयकुमार का पक्ष लिया था। मपु०४४.१०६-१०७, पापु० ३.९४-९५ सूर्यमूर्ति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२८ सूर्यरज-किष्किन्ध नगर के राजा किष्किन्ध तथा रानी श्रीमाला का ज्येष्ठ पुत्र । यक्षरज इसका छोटा भाई तथा सर्यकमला बहिन थी। इसकी रानी इन्दुमालिनी थी जिससे इसके बाली और सुग्रीव नाम के दो पुत्र तथा श्रीप्रभा पुत्री हुई थी। यह बालो को राज्य देकर तथा सुग्रीव को युवराज बनाकर पिहितमोह मुनि से दीक्षित हो गया था। पपु० ६.५२०-५२४, ९.१, १०-१२, १५-१९ सूर्यहास-एक खड्ग रत्न । इसकी एक हजार देव पूजा करते थे। स्वाभाविक उत्तम गन्ध भी इसमें थी। यह दिव्य मालाओं से अलंकृत था । इसकी सुगन्ध से आकृष्ट होकर लक्ष्मण इसके निकट गया था। इसे उसने निःशंक होकर ले लिया था। इसकी तीक्ष्णता की परीक्षा के लिए उसने बाँसों के झुरमुट को काट डाला था। शम्बूक इसको पाने के लिए इसी झुरमुट के बीच साधना-रत था । अतः भ्रान्तिवश इस रत्न को पाने के यत्न में ही वह लक्ष्मण द्वारा मारा गया था। पपु० ४३.५३-६२, ७२-७५ सूर्याचरण-सुमेरु पर्वत का अपर नाम । दे० सुमेरु सूर्याभ-(१) विजया, पर्वत की दक्षिणश्रेणी का छत्तीसवाँ नगर । यहाँ का राजा राम-रावण युद्ध में रावण की सहायतार्थ उसके पास आया था । मपु० १९.५०, ५३, पपु० ५५.८४ (२) पुष्कराध के विदेहक्षेत्र में विजयाध पर्वत की उत्तरश्रणी के गण्यपुर अपर नाम सूर्यप्रभ नगर का राजा । इसकी रानी धारिणी थी। इसके तीन पुत्र थे-चिन्तागति, मनोगति और चपलगति । मपु० ७०.२६-२९, हपु० ३४.१५-१७ दे० सूर्यप्रभ-४ सर्यार-भरत के साथ दीक्षित एक नृप । इसने निर्वाण पद प्राप्त किया था। पपु०८८.१-२, ४ सूर्यारक-एक देश । राम के पुत्रों ने यहाँ से राजा को युद्ध में जीता था। पपु० १०१.८३ सूर्यावर्त-(१) राम का एक धनुष । पपु० १०३.११-१२ दे० राम (२) पुष्करपुर नगर का राजा । इसकी रानी यशोधरा और पुत्र रश्मिवेग था। इन्होंने मुनिचन्द्र नामक मुनि से धर्मोपदेश सुनकर तपस्या की थी। इसको रानी यशोधरा ने भी गुणवती आयिका से दीक्षा ले ली थी । मपु० ५९.२२८-२३२, हपु० २७.८०-८२ (३) सुमेरु पर्वत का अपर नाम । दे० सुमेरु सूर्योदय-(१) एक सुगन्धित चूर्ण । जीवन्धरकुमार ने सुगन्धि में इसकी अपेक्षा चन्द्रोदय चूर्ण को परीक्षा करके अधिक श्रेष्ठ बताया था। मपु० ७५.३४८-३५७ (२) विद्याधरों का नगर । यहाँ का राजा सेना सहित रावण के पास आया था। पपु० ८.३६२, ५५.८५, ८८ (३) विनीता नगरी के राजा सुप्रभ और रानी प्रह्लादना का पुत्र । चन्द्रोदय का यह बड़ा भाई था। ये दोनों भाई तीर्थकर वृषभदेव के साथ दीक्षित हो गये थे किन्तु मुनि पद पर स्थिर न रह सके । अन्त में भ्रष्ट होकर वे मरीचि के शिष्य हो गये थे। यह मरकर राजा हरपति का कुलंकर नाम का पुत्र हुआ । पपु० ८५.४५-५० सृष्ट्यधिकारिता-द्विज के दस अधिकारों में पाँचवाँ अधिकार । मिथ्या दृष्टियों के दूषित सृष्टिवाद से अपनी, प्रजा की और राजा की रक्षा करने तथा धर्मसृष्टि की भावना करने के अधिकार का नाम सृष्ट्यधिकारिता है । मपु० ४०.१७५, १८७-१९१ सेना-(१) तीर्थंकर संभवनाथ की जननी । पपु० २०.३९ (२) हाथी, घोड़ा, रथ और पयादे ये सेना के चार अंग होते हैं। इनकी गणना करने के आठ भेद है-पत्ति, सेना, सेनामुख, गुल्म, वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनो। इनमें एक रथ, एक हाथी, तोन घोड़ों और पांच पयादों के समूह को पत्ति कहते हैं। सेना तीन पत्ति को होती है । तीन सेनाओं का दल सेनामुख, तीन सेनामुखों का दल गुल्म, तीन गुल्मों के दल को एक वाहिनी, तीन वाहिनियों की एक पुतना, तीन पृतनाओं की एक चमू और तीन चमू की एक अनीकिनी होती है । इन्द्र को सेना को सात कक्षाएँ होती हैं । उनके नाम इस प्रकार बताये गये है-हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, बैल, गन्धर्व और नृत्यकारिणी। इनमें प्रथम गज-सेना में बीस हजार हाथी होते हैं । आगे की कक्षाओं में यह संख्या दूनी-दूनी होती जाती है । मपु० १०.१९८-१९९, पपु० ५६.३-८ सेनानी-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का उनसठवाँ पुत्र । पपु० ८.२०० सेनापति-चक्रवर्ती भरतेश के चौदह रत्नों में एक सजीव रत्न । मपु० ३७.८३-८४, ८६ सेनामुख-सेना की गणना के आठ भेदों में तीसरा भेद । इसमें ९ रथ, ९ हाथी, २७ घोड़े और ४५ पदाति सैनिक होते हैं । पपु० ५६.३-७ दे० सेना-२ सेनारम्य-एक सरोवर । जीवन्धरकुमार ने यहाँ वनराज को पकड़कर ससैन्य विश्राम किया था। मपु० ७५.५१० सेन्द्रकेतु-धातकोखण्ड में ऐरावतक्षेत्र के विजयार्घ पर्वत पर स्थित वास्वालय नगर का राजा। इसकी रानी सुप्रभा और पुत्रो मदनवेगा थी। मपु० ६३.२५०-२५१ सेवक-आगामी बारहवें तीर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७३ सैतव-भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतक्षेत्र के मध्य आर्यखण्ड का एक देश । यहाँ भरतेश का शासन हो गया था। हपु० ११.७५ सैन्धव-सिन्धु देश में उत्पन्न अश्व । चक्रवर्ती भरतेश को ये भेंटस्वरूप __ प्राप्त हुए थे । मपु० ३०.१०७ सैन्य-पताका-सैन्य-ध्वज । युद्ध में काम आनेवाले सांग्रामिक रथ ध्वजाओं से युक्त होते थे। सबसे पहले पैदल, उनके पीछे घोड़ों का समूह उसके पश्चात् रथों का समूह और उसके पश्चात् हाथियों का समूह होता था। ये सभी अपना-अपना ध्वज लेकर चलते थे । मपु० २६. ७७-७८ सैन्यशिविर-सेना का विश्रामस्थल । यह पूर्वनियोजित होता था। इसकी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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