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________________ ४६४ : जैन पुराणकोश सूक्ष्मसाम्पराय-(१) दसवाँ गुणस्थान । इसमें बादर लोभ कषाय भी नहीं होता । राग अतिसूक्ष्म रह जाता है । मपु० ११.९०, २०.२५९२६०. हपु० ३.८२, वीवच० १३.१२१-१२२ (२) चारित्र का एक भेद । इसमें कषाय अत्यन्त सूक्ष्म होता है । हपु० ६४.१८ सूक्ष्मसूक्ष्म-पुद्गल द्रव्य के छः भेदों में प्रथम भेद । स्कन्ध से पृथक् रहनेवाला परमाणु जो इन्द्रियग्राह्य नहीं होता, सूक्ष्मसूक्ष्म कहलाता है । मपु० २४.१४९-१५०, वीवच० १६.१२० सूक्ष्मस्थूल-पुद्गल द्रव्य के छः भेदों में तीसरा भेद । ऐसे पुद्गल द्रव्य चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ज्ञात नहीं होने से सूक्ष्म और कर्ण इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किये जा सकने से स्थूल भी होते हैं ! जैसे शब्द, स्पर्श, रस और गन्ध आदि । मपु० २४.१४९, १५१, वीवच० १६.१२१ सूचिनाटक-सूची नृत्य । यह सुइयों के अग्रभाग पर किया जाता है। मपु० १४.१४२, हपु० २१.४४ सूतक-पातक-जन्म-मरण के समय की अशुद्धि । रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नान करने के पश्चात् शुद्ध मानी गयी है । इसी प्रकार प्रसूति मे बालक को बाहर निकालने के लिए दूसरा, तीसरा और चौथा मास शुद्धकाल बताया गया है । मपु० ३८.७०, ९०-९१ सूतिका-भरतक्षेत्र की एक नगरी । अग्निसह ब्राह्मण यहीं रहता था। मपु० ७४.७४ सूत्र-(१) दृष्टिवाद अंग के पाँच भेदों में दूसरा भेद । इसमें अठासी लाख पद है । इन पदों में श्रुति, स्मृति और पुराण के अर्थ का निरूपण किया गया है । मपु० ६.१४८, हपु० २.९६, १०.६१, ६९-७० (२) मणिमध्यमा हार का अपर नाम । इसका एक नाम एकावली भी है । मपु १६.५० सूत्रकृतांग-द्वादशांग श्रुत का दूसरा भेद । इसमें छत्तीस हजार पद हैं, जिनमें स्वसमय और पर समय का वर्णन किया गया है। मपु० ३४. १३६, हपु० २.९२, १०.२८ सूत्रपद-पारिव्राज्य । (दीक्षाग्रहण) क्रिया में जिन पर विचार किया जाता है ऐसे सत्ताईस सूत्रपद । वे निम्न प्रकार है-जाति, मूर्ति, उसमें रहनेवाले लक्षण, शारीरिक सौन्दर्य,प्रभा, मण्डल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपाधान, छत्र, चमर, घोषणा, अशोकवृक्ष, विधि, गहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा, कीर्ति, वन्दनीयता, वाहन, भाषा, आहार और सुख । ये परमेष्ठी के गुण होते हैं। मपु० ३९.१६२-१६६ सूत्रजसम्यक्त्व-सम्यक्त्व के दस भेदों में चौथा भेद । आचारांग आदि अंगों के सुनने से उनमें शीघ्र उत्पन्न श्रद्धा सूत्रज-सम्यक्त्व है । मपु० ७४.४३९-४४०, ४४३-४४४, वीवच० १९.१४१, १४६ सूत्रानुगा-सत्यव्रत की पाँच भावनाओं में पांचवीं भावना। शास्त्र के अनुसार वचन कहना सत्यव्रत की सूत्रानुगाभावना है । मपु० २०.१६२ सूक्ष्मसाम्पराय-सूपर्क सूत्रामणि-रूचकगिरि की उत्तरदिशा में विद्यमान नित्योद्योत कूट की रहनेवाली विद्युत्कुमारी देवी । हपु० ५.७२० सूनृतपूतवाक्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१२ सूप-दाल । इससे भोजन में रुचि बढ़ती है। वृषभदेव के समय में अरहर, मूग, उड़द, मटर, मौंठ, चना, मसूर और तेवरा प्रभृति दाल बनाई जानेवाले अनाज उत्पन्न होने लगे थे। मपु० ३.१८६-१८८, १२.२४३ सूर-(१) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक देश । महावीर यहाँ विहार करते हुए आये थे। उन्होंने यहाँ धर्मोपदेश दिया था। हपु० ३.५ (२) हरिवंशी एक राजा । इसकी रानी सुरसुन्दरी थी। ये दोनों राजा अन्धकवृष्टि के माता-पिता थे । पापु० ७.१३०-१३१ सरवत्त-जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र संबंधी कलिंग देश के कांचीपुर नगर का एक वैश्य । इसने और इसके साथी सुदत्त ने धन के लिए परस्पर में लड़कर एक दूसरे को मार डाला था । मपु० ७०.१२५-१३२ सूरदेव-मथुरा के सेठ भानु और उसकी स्त्री यमुना के सात पुत्रों में पाँचवाँ पुत्र । इसकी स्त्री का नाम सुन्दरी था। इसने अपने भाइयों के साथ वरधर्म मुनि से दीक्षा ले ली थी तथा इसकी पत्नी आर्यिका हो गयी थी । हपु० ३३.९६.९९, १२६-१२७ सुरवीर-काक-मांस के त्यागी खदिरसार भील का साला । खदिरसार के बीमार होने पर इसने उसे काक-मांस खाने के लिए बाध्य किया था किन्तु खदिरसार अपने नियम पर दृढ़ रहा जिसके फल से वह मरकर, सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। खदिरसार के व्रत का यह फल जानकर इसने भी समाधिगुप्त योगी से गृहस्थ के व्रत ग्रहण कर लिए थे । इसका अपर नाम शूरवीर था । मपु० ७०.४००-४१५, वीवच० १९.११३-१३३ दे० शूरवीर-२ सूरसेन -(१) भरतक्षेत्र के मध्य आर्यखण्ड का एक देश । पु० ३.४, ११.६४, ५९.११० (२) तीर्थंकर कुन्थुनाथ के पिता और हस्तिनापुर नगर के राजा । इसकी रानी श्रीकान्ता थी। मपु० ६४.१२-१३, २२ दे० सूर्य (३) भरतक्षेत्र में कुशार्थ देश के शौर्यपुर नगर का हरिवंशी एक राजा । यह राजा शूरवीर का पिता था। मपु० ७०.९२-९४ दे० शूरवीर सूरि-(१) पाँच परमेष्ठियों में आचार्य परमेष्ठी । हपु० १.२८ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२० सूरिगिरि-सुमेरु पर्वत का अपर नाम । दे० सुमेरु सूपर्क-वसुदेव का वैरी । यह वसुदेव को हरकर आकाश में ले गया था । वसुदेव ने इसे मुक्कों से इतना अधिक पीटा था कि मार से दुखी होकर इसे वसुदेव को आकाश में ही छोड़ देना पड़ा था। वसुदेव आकाश से गोदावरी के कुण्ड में गिरा था। इसके पूर्व भी अश्व का रूप धारण करके यह वसुदेव को हर ले गया था तथा उसे इसने आकाश से नीचे गिराया था । हपु० ३०.४२,३१.१-२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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