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________________ सिद्धार्था-सीता (२) अयोध्या का एक समीपवर्तीय तीर्थकर वृषभदेव ने इसी वन में दीक्षा धारण की थी । मपु० १७.१८१, १९४-१९६, हपु० ६०.८६-८७ सिद्धार्था - (१) विभीषण को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३३४ (२) साकेत नगर के राजा स्वयंवर की पटरानी। यह तीर्थंकर अभिनन्दननाथ की जननी थी । मपु० ५०.१६-१७, २१-२२, पपु० २०.४० सिद्धि - ( १ ) समस्त कर्मों के नष्ट हो जाने पर प्राप्त शिव-सुख । मपु० ३९.२०६ (२) भरतक्षेत्र के आर्य को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । मपु० ४८.७९ (३) अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में तेरहवीं वस्तु । हपु० १०.८० दे० अायणीयपूर्व (४) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४५ सिद्धिगिरि एक पयंत पूर्वविदेहक्षेत्र में रत्नसंचयनगर के राजा बखायुध ने इसी पर्वत पर प्रतिमायोग धारण किया था । मपु० ६३.३७३९, १३२ - का एक वन यहाँ चतुर्मुखमुनि सिद्धिक्षेत्रसम्यग्दर्शन सम्पखान और सम्यक्चारित्र रूप उपाय से प्राप्य एक मुक्त जीवों का स्थान । हपु० ३.६६-६७ सिद्धि - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४५ सिद्धेतर - मुक्त हुए जीवों से भिन्न संसारी जीव । हपु० ३.६६ सिन्दूर अन्तिम मोह द्वोपों में तीसरा द्वीप एवं इस द्वीप को घेरे हुए एक सागर । हपु० ५.६२३ सिन्धु - ( १ ) भरत क्षेत्र में उत्तरदिशा की ओर स्थित एक देश । भरतेश के भाई ने इस देश का राज्य त्याग कर वृषभदेव के समीप दीक्षा धारण कर ली थी । भरतेश को यहाँ के घोड़े भेंट में प्राप्त हुए थे । मपु० १६.१५५, ३०.१०७, ७५.३, हपु० ३.५, ११.६२, ६७, ४४.३३ पद्म (२) जम्बूद्वीप की प्रसिद्ध चौदह महानदियों में दूसरी नदी । यह सरोवर के पश्चिम द्वार से निकली है तथा पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । दिग्विजय के समय भरतेश का सेनापति यहाँ ससैन्य आया था। वृषभदेव के राज्याभिषेक के लिए यहाँ का जल लाया गया था। मपु० १६.२०९, १९.१०५, २८.६१, २९.६१, ३२.१२२, ६३.१९५, हपु० ५.१२२-१२३, १३२, ११.३९ (३) सिन्धुकूट को एक देवी । इसने चकवर्ती भरतेश को वस्त्र, आभूषण तथा दिव्य आसन भेंट में दिये थे । मपु० ३२.७९-८३, हपु० ११.४० सिन्धुकक्ष - विजया की दक्षिणक्षेणी का उन्तीसवाँ नगर । हपु० २२.९७ सिन्धुकुण्ड धुनी का कुछ इसका जयभदेव के राज्याभिषेक में व्यवहुत हुआ था । मपु० १६.२२० सिन्धुकूट - ( १ ) सिन्धुदेवी की निवासभूमि । हपु० ११.४० दे० सिन्धु - Jain Education International (२) हिमवत् कुलाचल का आठवाँ कूट । हपु० ५.५४ - सिन्धु तटवन – सिन्धु नदी का तटवर्ती एक मनोहर वन । इस वन में वृक्ष-समूह के अतिरिक्त लता निकुज भी थे। दिग्विज के समय चक्रवर्ती भरतेश की सेना यहाँ आयी थी । मपु० ३०.११९ सिन्धुद्वार सिन्धु नदी का द्वार चक्रवर्ती भरतेश पश्चिम दिशा के समस्त राजाओं को वश में करते हुए वेदिका के किनारे-किनारे चलकर यहाँ आये थे । उन्होंने यहाँ के स्वामी प्रभास देव को अपने अधीन किया था । मपु० ६८.६५३, हपु० ११.१५-१६ - जैन पुराणकोश : ४४३ चक्रवर्ती हरिषेण सिन्धुनद जम्बूद्वीप के भरतदक्षेत्र का एक नगर अनेक देशों में भ्रमण करते हुए यहाँ आये थे । इसी नगर में हाथी उन्मत्त हुआ था जिसे हरिषेण ने वश में करके नागरिकों को रक्षा की थी । पपु० ८.३१९-३४० सिन्धुप्रपात - सिन्धु नदी का एक प्रपात । चक्रवर्ती भरतेश अपनी सेना के साथ सिन्धु नदी के किनारे-किनारे चलते हुए यहाँ आये थे । सिन्धु देवी ने यहाँ उनका अभिषेक किया था । मपु० ३२.७९ - सीता - (१) विदेहक्षेत्र की चौदह महानदियों में सातवीं नदी । यह केसरी सरोवर से निकली है। यह सात हजार चार सौ इकतोस योजन एक कला प्रमाण नोल पर्वत पर बहकर सौ योजन दूर चार सौ योजन की ऊँचाई से नीचे गिरी है। यह पूर्व समुद्र की ओर बहती है। नील पर्वत की दक्षिण दिशा में इस नदी के पूर्व तट पर चित्र और विचित्र दो कूट हैं, मेरु पर्वत से पूर्व की ओर सीता नदी के उत्तर तट पर पद्मोत्तर और दक्षिण तट पर नीलवान् कूट हैं । 'पश्चिम तट पर वतंसकूट और पूर्व तट पर रोचनकूट हैं। इसमें पाँच लाख बत्तीस हजार नदियाँ मिली हैं । मपु० ६३.१९५, हपु० ५.१२३, १३४, १५६-१५८, १६०, १९१, २०५, २०८, २७३ (२) नील कुलाचल का चौथा कूट । हपु० ५.१०० (३) माल्यवान् पर्वत का आठवां कट । हपु० ५.२२० (४) अरिष्टपुर नगर के राजा हिरण्यनाभ के भाई रेवत की तीसरी पुत्री । यह कृष्ण के भाई बलदेव के साथ विवाही गयी थी । हपु० ४४.३७, ४०-४१ (५) जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र की द्वारवती नगरी के राजा सोमप्रभ की दूसरी रानी । पुरुषोत्तम नारायण की यह जननी थी । मपु० ६०.६३, ६६, ६७.१४२-१४३ (६) रुचक पर्वत के यशःकूट की दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७१४ (७) जम्बूद्वाप के भरतक्षेत्र की मिथिला नगरी के राजा जनक की पुत्री । पद्मपुराण के अनुसार इसको माता विदेहा थी । यह और इसका भाई भामण्डल दोनों युगलरूप में उत्पन्न हुए थे । इसका दूसरा नाम जानकी था। महापुराण के अनुसार यह लंका के राजा रावण और उसकी रानी मन्दोदरी की पुत्री थी। इसने पूर्व भव में मणिमती की पर्याय में विद्या-सिद्धि के समय रावण द्वारा किये गए विघ्न से कुपित होकर उसकी पुत्री होने तथा उसके वध का कारण बनने का निदान किया था, जिसके फलस्वरूप यह मन्दोदरी को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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