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________________ सर्वयश- सर्वार्थकल्पक जैन पुराणकोश : ४३१ सर्वयश-एक दिगम्बर मुनि । देविल वैश्य की पुत्री श्रीदत्ता ने सर्वशैल पर्वत पर इन्हीं से अहिंसावत लिया था। मपु० ६२.४९६ सर्वयशा-(१) सुरम्य देश में पोदनपुर नगर के राजा तृणपिंगल की रानी । यह मधुपिंगल की जननी थी। मपु० ६७.२२३-२२४, हपु० २३.५२ (२) विनीता नगरी के राजा सिंहसेन की रानी। ये तीर्थकर अनन्तनाथ को जननी थो । पपु० २०.५० ।। सर्वयोगीश्वर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६४ सर्वरक्षित-पुष्कलावती देश की पुण्डरी किणी नगरी के राजा गुणपाल का कोतवाल । यह उत्पलमाला वेश्या का प्रेमी था । मपु० ४६.२८९, २९८-३०४, दे० उत्पलमाला सर्वरत्न-(१) चक्रवर्ती के जीवन काल पर्यन्त रहने वाली काल, महा काल आदि नौ निधियों में एक निधि । निधिपाल देव इसकी रक्षा करता है । इस निधि से महानील, नील तथा पद्मराग आदि अनेक तरह के रत्न प्रकट होते थे। मपु० ३७.८२, हपु०११. ११०-१११ (२) रुचकगिरि की नैऋत्य दिशा में स्थित एक कूट । यहाँ जयन्ती देवी रहती है । हपु० ५.७२६ (३) मानुषोत्तर पर्वत के पूर्वोत्तर कोण में विद्यमान एक कूट । गरुड़कुमारों का स्वामी यहाँ रहता है । हपु० ५.६०८ 'सर्वरत्नमय-मेरु की चलिका से लेकर नीचे तक की छः पृथिवीकाय परिधियों में चौथी परिधि । इसका विस्तार सोलह हजार पाँच सौ योजन है । हपु० ५.३०४-३०५ 'सर्वरमणीय-भरतक्षेत्र का एक नगर । मपु० ७६.१८४ सर्बतक-भरतक्षेत्र का एक वन । तीर्थकर चन्द्रप्रभ ने इसी वन में दीक्षा ली थी। मपु० ५४.२१६-२१७ सर्वलोकजीत-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११९ सर्वलोकातिग-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९१ सर्वलोकेश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० मपु० २५.११९ सर्वलोकैकसारथि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९१ सर्ववित-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.११९ । सर्वविद्याप्रकर्षिणी-विद्याधर राजाओं की सोलह निकाय विद्याओं में एक विद्या । धरणेन्द्र ने यह विद्या नमि और विनमिविद्याधर को दो थी। हपु० २२.६२, ७३ । सर्वविद्याविराजिता-विद्याधर राजाओं की सोलह निकाय विद्याओं में एक विद्या । धरणेन्द्र ने इस विद्या के साथ अनेक अन्य विद्याएँ नमि और विनमि विद्याधर को दी थीं । हपु० २२.६४ सर्वहाल-एक बीमारी। इससे सम्पूर्ण शरीर में पीडा होती है । पपु० ६४.३५ सर्वशल-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक पर्वत । यहाँ सर्वयश मुनि आये थे। मपु० ६२.४९६ दे० सर्वयश सर्वश्री-(१) भरतक्षेत्र के विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में मेघपुर नगर के राजा धनंजय की रानी और धनश्री को जननी । मपु० ७१.२५२-२५३, हपु० ३३.१३५ (२) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेहक्षेत्र की वीतशोका नगरी के राजा वैजयन्त की रानी। इसके संजयन्त और जयन्त दो पुत्र थे। मपु० ५९.१०९-११०, हपु० २७.५-६ (३) एक आर्यिका । यह पंचमकाल के साढ़े आठ माह शेष रहने पर कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के अन्तिम दिन स्वाति नक्षत्र में देह त्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न होगी । मपु० ७६.४३२-४३६ (४) राजा सर्वसुन्दर की रानी और पद्मावती की जननी । पपु० ८.१०३ (५) इन्द्र लोकपाल की मुनि भक्त रानी। यह सम्यदृष्टि थी। आनन्दमाला मुनि की निन्दा करने के कारण कल्याण मुनि के द्वारा भस्म किये जाने वाले अपने पति को उसने मुनि की क्रोधाग्नि शान्त करके भस्म होने से बचाया था । पपु० १३.८२-९१ सर्वसमृद्ध–विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी का एक वैश्य । इसकी स्त्री धनश्री और सर्वदयित पुत्र था। मपु० ४७.१९१-१९३ सर्वसह-(१) वृषभदेव के पच्चासवें गणधर । हपु० १२.५९ (२) राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का आठवाँ पुत्र । पापु० ८.१९३ सर्वसार-राम का पक्षधर एक विद्याधर राजा। यह रावण की सेना देखकर व्याघ्रवाही रथ पर बैठकर युद्ध करने ससैन्य निकला था। 'पपृ० ५८.५ सबसुन्दर-सप्तर्षियों में चौथे ऋषि । प्रभापर के राजा श्रोता और रानी धरणी के सात पुत्र हुए थे-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र । ये सातों प्रीतिकर मुनि के पास दीक्षित हो गये थे। सप्तर्षि नाम से विख्यात हुए थे। मथुरा में चमरेन्द्र द्वारा फैलाई गई बीमारी इन्हीं के आगमन से शान्त हुई थी। पपु० ९२.१-१४ सर्वात्मभूत-आगामी पाँचवें तीर्थंकर । मपु०७६.४७८ हपु० ६०.५५९ सर्वात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११९ सर्वादि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११९ सर्वार्थ-(१) राजा सिद्धार्थ के पिता। भगवान महावीर के बाबा । हपु० २.१३ (२) चारुदत्त का मामा । इसकी स्त्री सुमित्रा और पुत्री मित्रवती थी। चारुदत्त ने मित्र वती के साथ विवाह किया था । हपु० २१.३८ (३) भरतक्षेत्र में काशी देश की वाराणसी नगरी के राजा अकम्पन के चार मंत्रियों में एक मंत्री। इसने राजा अकम्पन को सुलोचना का विवाह किसी विद्याधर राजकुमार के साथ करने की सलाह दी थो । मपु० ४३.१२१-१२७, १८१, १९२-९१३ सर्वार्थकल्पक-अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में दसवीं वस्तु । हपु० १०.७९ दे० अग्रायणीयपूर्व Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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