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________________ ४२४ : जैन पुराणकोश सत्यवीर्थ-तीसरे तीर्थकर संभवनाथ से धर्म संबंधी प्रश्न करनेवालों में श्रेष्ठ श्रावक । मपु० ७६.५२९ सत्य वेद -- तीर्थङ्कर वृषभदेव के चालीसवें गणधर । हपु० १२.६२ सत्यशासन - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७५ सत्यश्री - वेलन्धर नगर के राजा विद्याधर समुद्र की पुत्री। इसे लक्ष्मण ने विवाहा था । प० ५४.६५, ६८-६९ सत्यसंघ - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का पचपनवाँ पुत्र । पापु० ८.१९९ सत्यसंधान — सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७५ सत्यसत्त्व — जरासन्ध के अनेक पुत्रों में इस नाम एक पुत्र । हपु० ५२.३२ सत्याणुव्रत — अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतों में दूसरा अणुव्रत, राग, द्वेष और मोह (अज्ञान) से प्रेरित होकर परपीडाकारी असत्य वचन का त्याग करके हितकारी सारभूत सत्य वचन बोलना सत्याणुव्रत है । हपु० ५८. १३९, वीवच० १८.४० सत्यात्मा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७५ सत्याशी —– सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७५ सत्यवान् -- एक राजा । इसने भरत के साथ दीक्षा ले ली श्री । पपु० ८८.१.२, ५ सत्वहित एक मुनि इन्होंने विद्याधर चन्द्रप्रतिको विशल्या का चरित्र सुनाया था । पपु० ६४.२४, ४८-४९ सदनपद्मा - - राक्षस वंश के राजा राक्षस की पुत्रवधू । यह आदित्यगति की पत्नी थी । पपु० ५. ३७८-३८१, दे० आदित्यगति सदागति - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१७७ सवातृप्त—सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७७ सदाभावी सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८८ सदाभोग -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७७ सदायोग - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७७ सदार्थनपूजा - नित्यमहपूजा। घर से प्रतिदिन गन्ध, पूजन, अक्षत आदि द्रव्य ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्र की पूजा करना तथा मन्दिर आदि का भक्तिपूर्वक निर्माण कराकर वहाँ अन्य प्रतिमा की स्थापना कराना और पूजा आदि की व्यवस्था के लिए दान-पत्र लिखकर ग्राम, क्षेत्र आदि देना । मपु० ३८.२६-२८ । सदाविध - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७७ सदाशिव - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७७ सवाश्रय — एक राजा । इसने भरत के साथ दीक्षा ली थी । पपु० ८८. १-२, ४ सवासौख्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१७७ सबोदय - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१७७ Jain Education International सत्यवी-लुमार समृशम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर यहाँ चार करोड़ द्रव्य का स्वामी भावन वणिक् रहता था । पपु० ५.९६ सद्गृहमेधि-धर्म- गृहस्थ धर्म दान पूजा, शील और प्रोषधये चार कार्य करना सद्गृहस्थ का धर्म है। चक्रवर्ती भरतेश ने इनके छः धर्म बताये हैं । वे हैं - इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप । मपु० ८.१७३, ३८.२४, ४१.१०४, दे० गृहस्थ धर्म सद्गृहित्व - सात परमस्थानों में दूसरा परमस्थान । सज्जाति परमस्थान को प्राप्त करने के पश्चात् गृहस्थ का देव पूजा आदि छः कर्मों का करना, सत्य, शौच, शान्ति, दम आदि गुणों से युक्त होना तथा न्यायमार्ग से अपने आत्मा के गुणों का उत्कर्ष प्रकट करना सद्गृहित्व परमस्थान कहलाता है । मपु० ३८.६७-६८, ३९.९९-१०७, १२५, १५४ समलिपुर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर यहाँ का राजा मेघरथ था । हपु० १८.११२ सद्योजात - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.७८, १९६ - सद्वेधास्रव - सातावेदनीय कर्म के आस्रव । यह समस्त प्राणियों पर दया करना, व्रती जनों पर अनुराग रखना, सरागसंयम का पालन करना, दान, क्षमा, शौच, अर्हन्त की पूजा और बाल तथा वृद्ध तपस्वियों की वैयावृत्ति आदि से होता है । हपु० ५८.९५ सधनंजय - विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्र ेणी का पैंतालीसवाँ नगर । मपु० -- १९.८४, ८७ सनत्कुमार - ( १ ) सोलह स्वर्गों में तीसरा स्वर्ग । मपु० ६७.१४६, ७४.७५, हपु० ६.३६ (२) अकृत्रिम चेत्यालयों की प्रतिमाओं के समीप स्थित यक्ष । हपु० ५.३६३ (३) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न बारह चक्रवर्तियों में चौथा चक्रवर्ती । यह अयोध्या नगरी के राजा अनन्तवीर्य और रानी सहदेवी का पुत्र था। इसकी आयु तीन लाख वर्ष की थी । इसने कुमारकाल में पचास हजार वर्षं, मण्डलीक अवस्था में पचास हज़ार वर्ष, दिग्विजय में दस हजार वर्ष, चक्रवर्ती अवस्था में नब्बे हजार वर्ष और एक लाख वर्ष संयम अवस्था में बिताये थे। इसने देवकुमार नामक पुत्र को राज्य देकर शिवगुप्त मुनि से दीक्षा ली थी तथा कर्म नाश कर मोक्ष प्राप्त किया था । पद्मपुराण में इसकी इस प्रकार कथा दी गई हैं । सौधर्मेन्द्र ने अपनी सभा में इसके रूप की प्रशंसा की थी, जिसे सुनकर दो देव इसके रूप को देखने आये थे । उन्होंने इसे धूल-धूसरित अवस्था में स्नान के लिए तैयार कक्षों के बीच बैठा देखा दोनों देव मुग्ध हुए। जब इसे ज्ञात हुआ कि देव उसका रूप देखने आये हैं, इसने वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होने के पश्चात् सिंहासन पर देखने के लिए देवों से आग्रह किया । देवों ने इसे सिहासन पर बैठा देखा। उन्हें प्रथम दर्शन में जो शोभा दिखाई दी थी वह इस दर्शन में दिखाई नहीं दी । इन देवों से लक्ष्मी एवं भोगोपभोगों की क्षणभंगुरता जानकर इसका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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