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________________ २६ : जैन पुराणकोश अप्रमेयास्त्र-अभिचन्द्र अप्रमेयत्व-मुक्त जीव का एक गुण । इस गुण की प्राप्ति के लिए अभयघोष (१) मनोरमा का पिता, सुविधि का मामा-ससुर । यह 'अप्रमेयाय नमः' यह पीठिका-मन्त्र है। मपु० ४०.१६, ४२-१०३ चक्रवर्ती राजा था। मपु० १०.१४३ अप्रमेयात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० (२) एक केवली-तृतीय चक्रवर्ती मघवा का दीक्षागुरु । मपु० २५.१६३ ६१.८८, ९७ अप्रशस्तध्यान-अशुभ भावों से युक्त दुर्ध्यान । यह आर्त और रौद्र ध्यान (३) धातकीखण्ड द्वीप के तिलकनगर का नृप। इसकी रानी के भेद से दो प्रकार का होता है । यह संसारवर्धक है, इसीलिए हेय सुवर्णतिलका से उत्पन्न विजय तथा जयन्त नाम के दो पुत्र थे। है। मपु० २१.२७-२९ विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित मन्दारनगर के राजा शंख अप्सरा-देव-सभा की नर्तकी देवी । मपु० १७.२-५, २२.२१ की पुत्री पृथिवीतिलका इसकी दूसरी रानी थी। इस रानी से अबन्धनसौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०४ अपमानिता सुवर्णतिलका अपने दोनों पुत्रों के साथ अनन्तग्राम के मुनि अब्द-दो अयन प्रमाण काल । यह वर्ष का सूचक शब्द है। मपु० ३. के पास दीक्षित हो गयी थी। तीनों महाव्रत धारण कर आयु के अन्त १२०, १२९, हपु० ७.२२, दे० काल में समाधिमरण पूर्वक अच्युत स्वर्ग में देव हुए । मपु० ६३.१६८-१७८ अब्रह्म-ब्रह्म की विपरीत स्वभाववाली क्रिया, स्त्री-पुरुषों की मैथुनिक ___ अभयवान-कर्म बन्ध के कारणों को त्याग करने की इच्छा से प्राणियों - चेष्टा । हपु० ५८.१३२ को पीड़ा पहुंचाने का त्याग करना । ऐसा करने से जोब निर्भय होते अभयंकर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२११ हैं। मपु० ५६.७०-७२, पपु० १४.७३-७६, ३२.१५५ दे० दान अभय-राजा धृतराष्ट्र और उसकी रानी गान्धारी का इक्यासीवां पुत्र । अभयनन्दी-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित मथुरा नगरी के निवासी पापु० ८.१९१-२०५ शौर्य देश के राजा शूरसेन और इसी नगरी के निवासी भानुदत्त सेठ अभयकुमार-राजा श्रेणिक का पुत्र, अक्रूर और वारिषेण का छोटा के दीक्षागुरु । मपु० ७१.२०१-२०६, हपु० ३३.१०० भाई। इसने अपने पिता एवं भाई वारिषेण तथा विमाता चेलना ___अभयनिनाद-सकलभूषण केवली का प्रधान शिष्य । पपु० १०५.१०४के साथ वीर जिन की वन्दना की थी। चेटक की पुत्री चेलिनी और ज्येष्ठा में अपने पिता का प्रेम ज्ञातकर तथा वृद्धावस्था के कारण अभययान-एक शिविका । तीर्थकर सुमतिनाथ इसी में बैठकर दाक्षार्थ चेटक द्वारा उक्त कन्याएँ अपने पिता को न दिये जाने पर इसने सहेतुक वन में गये थे। मपु० ५१.६९ पिता का चित्र बनाया और उसे इन कन्याओं को दिखाकर इन्हें पिता . अभयसेन-(१) महावीर की आचार्य परम्परा में होनेवाले एक आचार्य । श्रेणिक में आकृष्ट किया तथा यह उन्हें सुरंगमार्ग से श्रोणिक के हपु० ६६.२८-२९ . पास ले आया। चैलिनी नहीं चाहती थी कि उसकी बहिन ज्येष्ठा (२) राजा अनरण्य और उसके ज्येष्ठ पुत्र अनन्तरथ के दोक्षाभी राजा घणिक को प्राप्त हो अतः उसने ज्येष्ठा को आभूषण लाने गुरु । पपु० २२.१६७-१६८ का बहाना कर घर लौटा दिया और स्वयं उसके साथ आ गयी। अभयानन्द-तीर्थकर श्रेयान् (श्रेयांस) के पूर्वभव का पिता । पपु० २०. उधर आभूषण लेकर जैसे ही ज्येष्ठा लौटकर आयी, उसने वहाँ २५-३० चेलिनी बहिन को न देखकर सोचा कि वह उसके द्वारा ठगी गयी ___अभव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११८ । है । ऐसा विचारकर तथा उदास होकर ज्येष्ठा आर्यिका यशस्वती के अभव्य-मोक्ष प्राप्त करने के लिए अयोग्य जीव । ऐसे प्राणी जिनेन्द्र पास दीक्षित हो गयी। उधर श्रेणिक चेलिनी को पाकर अभयकुमार प्रतिपादित बोधि प्राप्त नहीं कर पाते, रत्नत्रय मार्ग भी इन्हें नहीं की बुद्धिमत्ता पर अति प्रसन्न हुआ । इसके सम्बन्ध में निमित्तज्ञानियों मिल पाता और ये मिथ्यात्व के उदय से दूषित रहते हैं। ऐसे जीवों ने कहा था कि यह तपश्चरण कर मोक्ष जायगा । मपु० २५.२०-३४, का संसार सागर अनादि और अनन्त होता है। ये उचित समय पर ७४.५२६-५२७, पपु० २.१४४-१४६, हपु० २.१३९, पापु० २.११-१२ सुपात्रों को दान नहीं दे पाते और कुक्षेत्र में इनकी मृत्यु होती है। दूसरे पूर्वभव में यह एक मिथ्यात्वी ब्राह्मण था। अहंदास ने इन्द्रियों के भेद से ये पाँच प्रकार के होते है-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, विभिन्न युक्तियों द्वारा इससे देवमूढ़ता, तीर्थमूढ़ता, जातिमूढ़ता और श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । ये पांचों भव्य और अभव्य लोकमूढ़ता आदि का त्याग कराया था। किसो अटवी में मार्ग भूल दोनों प्रकार के होते हैं। मपु० २४.१२९, ७१.१९८, पपु० १०५. जाने से संन्यास पूर्वक मरण कर यह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ और १४६, २०३, २६०.२६१, २.१५८, ७.३१७, हपु० ३.१०१, वहाँ से चयकर इस पर्याय में उत्पन्न हुआ, मपु० ७४.४६४-५२६, १०६, वीवच० १६.६३, वीवच० १९.१७०-२०३ इसका पिता इसकी जन्मभूमि नन्दिग्राम के अभिचन्द्र-(१) नवें मनु यशस्वान् के करोड़ों वर्ष के पश्चात् हुए दसर्वे निवासियों से असन्तुष्ट हो गया था किन्तु इसने पिता का क्रोध मनु (कुलंकर) । इनकी आयु कुमुदांग काल प्रमाण थी और मुख चन्द्र शान्त कर दिया था और पण्डितों ने इसके बुद्धि कौशल को देखकर के समान सौम्य था । ये छ: सौ पच्चीस धनुष ऊँचे तथा दैदीप्यमान इसे 'पण्डित' कहा था। मपु० ७४.४२९-४३१ । शरीर के धारी थे । इन्हीं के समय में प्रजा ने रात्रि में अपनी सन्तान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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