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________________ -संवेदिनीकथा - सगर कथा | संसार से भय उत्पन्न करनेवाली कथा संवेजिनी कथा कहलाती है । पपु० १०६.९२-९३ दे० संवेदिनी 'संवेदिनी कथा -- संसार से भय उत्पन्न करनेवाली कथा । यह आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निर्वेदिनी इन चार प्रकार की कथाओं में तीसरे प्रकार की कथा है। इसी को संबेजिनी कहते हैं । मपु० १.१२५-१३६ ३० बेजिनी संयमध्यात्वज्ञान संदाय आदि पाँच प्रकार के मिध्यात्वों में एक मिथ्यात्व | मिथ्यात्व कर्म के उदय से तत्त्वों के स्वरूप में यह है या नहीं ऐसा सन्देह होना या चित्त का दोलायमान बना रहना संशयमिथ्यात्व कहलाता है । मपु० ६२.२९७, २९९ संजय सन्धिविग्रह आदि राजा के छः गुणों में पांच गुण अक्षरण को शरण देना संश्रय कहलाता है । मपु० ६८.६६, ७१ - संसार - जीव का एक पर्याय छोड़कर दूसरी नयी पर्याय धारण करना । जीव-चक्र के समान भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमता है । कर्मों के वश में होकर अरहट के घटीयंत्र के समान कभी ऊपर और कभी नीचे जाता रहता है । यह अनादिनिधन है । यह द्रव्य, क्ष ेत्र, काल, भाव और भव के भेद से पंच परावर्तन रूप है । नरक, तिर्यंच, और मनुष्य देव ये चार गतियाँ हैं । इन्हीं गतियों में जीव का गमनागमन संसरण कहलाता है । मपु० ११.२१०, २४.११५, ६७.८, पपु० ८.२२०, १०९.६७-६९, ११४.३२, वीवच० ६.२१ - संसारानुप्रेक्षा - बारह अनुप्रेक्षाओं में एक अनुप्रेक्षा । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप परिवर्तनों के कारण संसार दुःख रूप है ऐसी भावना करना संसारानुपेक्षा है मपू० १२.१०६, पु० १४.२१८२३९ ० २५.८७-८८ वी० ११.२३-२४ , संसारी - ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से बँधा हुआ जीव । यह सुख पाने की इच्छा से इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्यं को शरीर में ही निहित मानता है । इसे उन्हें पाने के लिए पर वस्तुओं का आश्रय लेना पड़ता है । कर्म- बन्धन से बँधे रहने के कारण यह संसार से मुक्त नहीं हो पाता। ये गुणस्थानों और मार्गणास्वानों में स्थित है। नरक, तियंच, देव और मनुष्य इन चार गतियों में भ्रमते हैं । पर्यायों की अपेक्षा से अनेक भेद-प्रभेद होते हैं । मपु० २४.९४, ४२.५३-५९, ७६, ६७.५६, पपु० २.१६२-१६८, वीवच० १६.३६ ५२ संस्कार - जीव की वृत्तियाँ । यह शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार की होती है । इन वृत्तियों का सम्बन्ध जन्म और जन्मान्तरों से होता है। सांसारिकता से मुक्त होने के लिए ही गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त श्रावक की त्रेपन क्रियाओं का विधान है। इन क्रियाओं के द्वारा उत्तरोत्तर विशुद्ध होता हुआ जीव अन्त में निर्वाण प्राप्त कर लेता है । मपु० ९.९७, ३८.५०-५३, ३९.१ २०७ दे० गर्भान्वय संस्थलि — सम्मेदाचल पर्वत के पास विद्यमान एक पर्वत । पपु० ८.४०५ संस्थान - जीवों का गोल, त्रिकोण आदि आकार । जीवों में पृथिवीकायिक जीवों का मसूर के समान, जलकायिक जीवों का तृण के Jain Education International जैन पुराणको ४२१ अग्रभाग पर रखी बूँद के समान, तैजस-कायिक जीवों का खड़ी सूई के समान, वायुकायिक जीवों का पताका के समान और वनस्पतिकायिक जीवों का अनेक रूप संस्थान होता है । विकलेन्द्रिय तथा नारकी जीव हुण्डक संस्थान वाले होते हैं। मनुष्य और तिर्यचों के ( समचतुस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्ज, वामन और हुण्डक) छहों संस्थान होते हैं किन्तु देवों के केवल समचतुस्रसंस्थान होता है । पु० ३.१९७, १८.७०-७२ संस्थान - विषय - धर्मध्यान के दस भेदों में आठवाँ भेद । आकाश के मध्य में स्थित लोक चारों ओर से तीन वातवलयों से वेष्ठित है । ऐसा लोक के आकार का विचार करना संस्थान- विचय धर्मध्यान कहलाता है । मपु० २१.१४८-१५४, पु० ५६.४८० सककापिर - भरतक्षेत्र के दक्षिण आर्यखण्ड का एक देश । चक्रवर्ती भरतेश के छोटे भाई का यहाँ शासन था । उन्होंने मोक्ष की अभिलाषा से इस देश का त्याग कर संयम ग्रहण कर लिया था । हपु० ११.६९, ७६ सकलदति - दत्ति के चार भेदों में एक भेद । अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को कुलपद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब सौंपना कहलाती है मपु० ३८.४०-४१ सकल परमात्मा - घातिया कर्मों से मुक्त परमीदारिक दिव्य देह में स्थित अर्हन्त । ये अनन्तज्ञान आदि नौ केवललब्धियों के धारक होते हैं । धर्मोपदेश से भव्य जीवों का उद्धार करते हैं और समस्त अतिशयों से युक्त होते हैं। वीवच० १६.८४-८८ सकलभूतदया - सातावेदनीय कर्म की आस्रवभूत क्रियाओं में एक क्रिया । समस्त प्राणियों पर दया करना सकलभूतदया कहलाती है । हपु० ५८. ९४-९५ सकलभूषण - विजयात्रं पर्वत की उत्तरश्रेणी में गुंजा नगर के राजा सिंहविक्रम और रानी श्री का पुत्र । इसकी आठ सौ रानियाँ थीं जिनमें किरणमाला प्रधान रानी थी। इसके सोते समय मामा के पुत्र हेमशिख का नाम उच्चारण करने से यह विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली। रानी साध्वी हो गयी और मरकर विद्यद्वक्त्रा नाम की राक्षसी हुई । इसने सकलभूषण के मुनि हो जाने पर मुनि अवस्था में अनेक उपसर्ग किये थे। आहार के समय भी उसने अन्तराय किये। एक बार आहार देनेवाली स्त्री का हार उसने इनके गले में डालकर इन्हें चोर घोषित किया । महेन्द्रोदय उद्यान में प्रतिमायोग में विराजमान देखकर दिव्य स्त्रियों के रूप दिखाकर भी उपसर्ग किये। इनका मन इसके उपसर्गों से विचलित नहीं हुआ फलस्वरूप इन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ। पपु० १०४.१०३-११७ सखि - नवें बलभद्र बलराम के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.२३३ सगर - ( १ ) जरासन्ध राजा के अनेक पुत्रों में एक पुत्र । हपु० ५२.३६ (२) अवसर्पिणी काल के दुःषमा- सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं दूसरे चक्रवर्ती। ये दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थंकाल में हुए । इनके पिता कौशल देश की अयोध्या नगरी के राजा समुद्रविजय अपर नाम विजयसागर तथा माता रानी 'सुबाला For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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