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________________ ४१४ : जेन पुराणकोश श्रीश्रितपादाब्ज-श्रुतवान् अतः यह पर्वत तब से इस नाम से विख्यात हुआ। पपु० १९.१०६ मीभितपावाब्ज-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२११ श्रीषेण-(१) आगामी पांचवें चक्रवर्ती। मपु० ७६.४८२, हपु० ६०.५६३ (२) जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र सम्बन्धी गन्धिल देश के सिंहपुर नगर का राजा। इसकी रानी सुन्दरी थी। इन दोनों के जयवर्मा और श्रीवर्मा दो पुत्र थे। इसने अपना राज्य छोटे पुत्र श्रीवर्मा को देकर ज्येष्ठ पुत्र जयवर्मा की उपेक्षा की थी जिससे विरक्त होकर वह दीक्षित हो गया था । मपु० ५.२०३-२०८ (३) पुष्करद्वीप के विदेहक्षत्र सम्बन्धी सुगन्धि देश में श्रीपुर नगर का राजा । इसकी रानी श्रीकान्ता थी। इस राजा ने श्रीवर्मा नामक पुत्र को राज्य देकर श्रीपद्म मुनि से दीक्षा ले ली थी। मपु० ५४.८-१०, ३६-३९, ७३-७६ दे० श्रोवर्मा-३ (४) साकेत नगर का राजा। श्रीकान्ता इसकी रानी थी। इन दोनों की दो पुत्रियाँ थीं हरिषेण और श्रीषेण । मपु० ७२.२५३२५४ (५) भरतक्षेत्र के अंग देश की राजधानी चम्पा नगरी का राजा। इसकी रानी धनश्री और कनकलता पुत्री थी। मपु० ७५.८१-९३ (६) हरिविक्रम भीलराज के पुत्र वनराज का मित्र । इसने और इसके साथी लोहजंघ ने हेमाभनगर की कन्या श्रीचन्द्रा का हरण करके और उसे सुरंग से लाकर वनराज को समर्पित की थी। मपु० ७५.४७८-४९३ (७) रत्नपुर नगर का राजा। इसकी दो रानियाँ थी-सिंहनन्दिता और अनिन्दिता। इन दोनों रानियों के इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नाम के दो पुत्र थे। यह राजा अपने पुत्रों के बीच उत्पन्न हुए विरोध को शान्त न कर सकने से विष-पुष्प सूचकर मरा था। इसकी दोनों रानियाँ भी विष-पुष्प सूधकर निष्प्राण हो गयी थीं। मपु० ६२.३४०-३७८, पापु० ४.२०३-२१२ (८) श्रीपुर नगर का राजा। इसने मेघरथ मुनि को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । मपु० ६३.३३२-३३५ श्रीषेणा-(१) साकेत नगर के राजा श्रोषेण तथा रानी श्रीकान्ता की पुत्री । हरिषेणा इसकी बड़ी बहिन थी। पूर्वभव में की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण हो जाने से इन दोनों बहिनों ने दीक्षा ले ली थी। मपु० ७२.२५३-२५६, हपु० ६४.१२९-१३१ (२) जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेहक्षेत्र में रत्नसंचयनगर के राजा सहस्रायुध की रानी। कनकशान्त इसका पुत्र था। मपु० ६३.३७, ४५-४६, पापु० ५. १४-१५ बीसंजय-एक राजकुमार । यह सीता के स्वयंवर में आया था। पपु० २८.२१५ मोहम्य-विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी का तेरहवाँ नगर। मपु० । १९.७९, ८७ श्रुतकेवली-बारह अंग और चौदह पूर्वरूप श्रुत में पारंगत मुनि । ये प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ज्ञानों के धारी होते हैं । मपु० २.६०-६१ श्रुतज्ञान-अर्हन्त-भाषित अंग और पूर्वगत श्रुत का ज्ञान । इससे स्वर्ग और मोक्ष के मूलभत समीचीन धर्म का लक्षण जाना जाता है। इसके निम्न बीस भेद हैं१. पर्याय २. पर्याय समास ३. अक्षर ४. अक्षर समास ५. पद ६. पद-समास ७. संघात ८. संघात-समास ९. प्रतिपत्ति १०. प्रतिपत्ति-समास ११. अनुयोग १२. अनुयोग समास १३. प्राभृत-प्राभृत १४. प्राभुत-प्राभृत समास १५. प्राभृत १६. प्राभृत ममास १७. वास्तु १८. वास्तु-समास १९. पूर्व २०. पूर्व-समास हपु० १०.११-१२ श्रुतज्ञानव्रत-कर्मनाशक एक तप । इसमें एक सौ अट्ठावन उपवास और इतनी ही पारणाएं की जाती है। इस प्रकार सम्पूर्ण व्रत में तीन सौ सोलह दिन लगते हैं। इसका मुख्यफल केवलज्ञान और गौण फल स्वर्ग आदि की प्राप्ति है। मपु० ६.१४२, १४५-१५०, हपु० ३४.९७ श्रुतज्ञानावरण-ज्ञानावरणकर्म का एक भेद । ज्ञान-मद के कारण जो पुरुष अध्ययन-अध्यापन नहीं करते हैं, यथार्थता को जानकर भी दूसरों के दुराचारों का उद्भावन करते हैं, हितैषी जिनागम का अध्ययन न कर कुशास्त्र पढ़ते हैं, आगमनिन्दित और परपीडाकारी असत्य बोलते है। वे इस कर्म के उदय से ऐसा करते हैं । जिनागम के पढ़ने-पढ़ाने, व्याख्यान करने, हितमित प्रिय वचन बोलने से इस कर्म का क्षयोपशम होता है। जीव इस कर्म के क्षयोपशम से ही विद्वान् और जगत् पूज्य होते हैं । वीवच० १७.१३३-१३८ श्रुतदेवता-तीनों लोकों से वंद्य श्रुतदेवी-जिनवाणी । विद्या पढ़ने-पढ़ाने का शुभारम्भ करने के पूर्व इस देवता का स्मरण किया जाता है । मपु० १६.१०३, पपु० ३.९५ अतधर-(१) एक मुनि । इन्होंने अपने तीन निग्रन्थ शिष्यों को अष्टांग निमित्तज्ञान का अध्ययन कराया था। इनके इन्हीं शिष्यों ने वसु राजा और पर्वत को नरकगामी तथा नारद को स्वर्ग में देव होना बताया था । मपु०६७.२६२-२७१ (२) एक राजा। इसने भरत के साथ दीक्षा ले ली थी। पपु० ८८.१-२,५ श्रतपुर-भरतक्षेत्र का एक नगर । वनवास के समय पाण्डव इस नगर में आये थे तथा उन्होंने जिनमन्दिर में पूजा की थी। पापु० १४.७९ भतवान-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का उनतालीसवा पुत्र । पापु०८.१९७ Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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