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________________ २४ : जैन पुराणकोश (२) अनर्थदण्ड का दूसरा भेद-अपनी जय और पर की पराजय तथा अहित का चिन्तन । अनर्थदण्डव्रती इस प्रकार का चिन्तन नहीं करता । हपु० ५८.१४६, १४९ दे० अनर्थदण्डव्रत अपरविदेह — नील कुलाचल के नौ कूटों में सातवाँ कूट। इसकी ऊँचाई और मूल की चौड़ाई सौ योजन मध्य की चौड़ाई पचहत्तर योजन और ऊर्ध्व भाग की चौड़ाई पचास योजन है । हपु० ५.९०, ९९-१०० दे० नील 3 अपराजित - ( १ ) अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के पश्चात् होनेवाले ग्यारह अंग और चौवह पूर्व रूप महाविद्याओं के पारगामी पांच धुतकेवलियों में तृतीय श्रुतकेयली म० २.१३० १४२ ये अनेक नयों से अति विशुद्ध विचित्र अर्थों के कर्ता पूर्ण श्रुतज्ञानी और महातपस्वी थे। इनके पूर्व नन्दी मन्त्र और गोवर्द्धन तथा बाद में भद्रबाहु हुए थे । मपु० ७६.५१८-५२१, हपु० १.६१, वीवच० १.४१-४४ (२) बहुत गोपुर, कोट और तीन परिवाओं से युक्त विज या की दक्षिण और उत्तर श्रेणी का एक नगर । यह महावत्स देश की राजधानी था। मपु० १९.४८, ५३, ६३.२०९-२१४, हपु० २२.८७ (३) वृषभदेव के पैंतीसवें गणधर । हपु० १२.६१ (४) सातवें तीर्थंकर, सुपार्श्व के पूर्वजन्म का नाम । पपु० २०. १४-२४ (५) तीर्थंकर मुनिसुव्रत की दीक्षा शिविका । मपु० ६७.४० (६) नवग्रैवेयक के ऊपर स्थित पाँच अनुत्तर विमानों में एक विमान । यहाँ देव तेतीस सागर प्रमाण आयु पाते हैं । शरीर एक हाथ ऊँचा होता है । साढ़े सोलह मास बीत जाने पर यहाँ वे एक बार श्वास लेते हैं, तेतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार करते हैं और प्रवीचार रहित होते हैं। तीर्थंकर सुविधिनाथ (पुष्पदन्त ) पूर्वभव में इसी विमान में ये मपु० ६६.१६-१९० २०.३१-३५, १०५.१७०-१७१, पु० ६.६५, ३३.१५५ (७) चक्रपुर नगर का राजा। इसने तीर्थंकर अरनाथ को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। चक्रायुध इसका पुत्र था । मपु० ५९.२३९, ६५.३५-३६, हपु० २७.८९-९०, पाप० ७,२८ (८) उज्जयिनी नगरी का राजा। इसकी विजया नाम की रानी और उससे उत्पन्न विजयश्री नाम की पुत्री थी । हपु० ६०.२०५ ( ९ ) जरासन्ध का पुत्र । इसने तीन सौ छियालीस बार यादवों से युद्ध किया था फिर भी असफल रहा। अन्त में यह कृष्ण के बाणों से मारा गया था। इसे जरासन्ध का भाई भी कहा है । मपु० ७१.७७०, हपु० ३६.७१-७३, ५०.१४, १८.२५ (१०) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में स्थित वत्सकावती देश की सुसीमा नगरी में उत्पन्न केवल मपु० ६९.३८-३९ (११) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और उसकी रानी श्रीकान्ता का पुत्र, वज्रनाभि का सहोदर । यह स्वर्ग से च्युत प्रशान्त मदन का जीव था । मपु० ११.९-१० Jain Education International अपरविबेह- अपराजित (१२) सावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर और उनकी रानी वसुन्धरा का पुत्र । इसी राजा की दूसरी रानी से उत्पन्न अनन्तवीर्य इसका भाई था। राज्य प्राप्त कर नृत्याङ्गनाओं के नृत्य में आसक्त होने से यह अपने यहाँ आये नारद का स्वागत नहीं कर सका जिससे कुपित हुए नारद ने दमितारि को युद्ध करने को प्रेरित किया था। इन दोनों भाइयों ने नर्तकी का वेष बनाकर और दमितारि के यहाँ जाकर अपने कलापूर्ण नृत्य से उसे प्रसन्न किया था । दमितारि ने नृत्यकला सीखने के लिए अपनी कन्या कनकश्री इन्हें सौंप दी थी। नर्तकी वेषी इसने अनन्तवीर्य के सौन्दर्य और शौर्य की प्रशंसा की जिससे प्रभावित होकर कनकश्री ने अनन्तवीर्य से मिलना चाहा । अनन्तवीर्य अपने रूप में प्रकट हुआ और इसे अपने साथ ले गया। इस कारण हुए युद्ध में दमितारि अनन्तवीर्य द्वारा अपने ही चक्र से मारा गया। इसके बाद अनन्तवीर्य तीन खण्डों का राज्य करके मर गया। उसके वियोग से पीड़ित इसने उसके पुत्र अनन्तसेन को राज्य दे दिया और स्वयं यशोधर मुनि से संयमी हुआ । संन्यास मरण करके यह अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ । इसने बलभद्र का पद पाया था । मपु० ६२.४१२-४८९, ५१०, ६३. २-४, २६-२७, पापु० ४.२४८, २८०, ५.३-४ (१३) इस नाम का हलायुध । यह राम को प्राप्त रत्नों में एक रत्न था । मपु० ६८.६७३ (१४) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सोतोदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित सुगन्धिल देश के सिंहपुर नगर के निवासी राजा अर्हद्दास और उसकी रानी जिनदत्ता का पुत्र । इसके जन्म से इसका पिता अजेय हो गया इससे इसे यह नाम प्राप्त हुआ था। मुनि विमलवाहन से इसने सम्यग्दर्शन धारण कर अणुव्रत आदि श्रावक के व्रत धारण किये थे । विमलवाहन तीर्थ के दर्शन कर भोजन व ग्रहण करने की प्रतिज्ञा भी आठ दिन के उपवास के बाद इन्द्र के आदेश से यक्षपति ने पूर्ण की थी । चारणऋद्धिधारी अमितमति और अमिततेज नामक मुनियों से निज पूर्वभव सुनकर तथा एक मास की आयु शेष ज्ञातकर इसने अपने पुत्र प्रीतिकर को राज्य दे दिया । प्रायोपगमन नामक संन्यास धार कर यह सोलहवें स्वर्ग के सातंकर नाम के विमान में बाईस सागर प्रमाण आयु का धारी अच्युतेन्द्र हुआ और वहाँ से च्युत होकर कुरजांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा श्रीचन्द्र की रानी श्रीमती का सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हुआ । मपु० ७०.४-५२, हपु० ३४.३-४३ (१५) पातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिणी तट पर स्थित वत्स । देश के सुसीमा नगर का स्वामी । यह अपने पुत्र सुमित्र को राज्य देकर पिहितास्रव मुनि से दीक्षित हुआ तथा समाधिमरण द्वारा शरीर त्याग कर अहमिन्द्र हुआ। वहाँ से चयकर कौशाम्बी नगरी में तीर्थंकर पद्मप्रभ का पिता, धरण नाम का नृप हुआ । मपु० ५२.२-३, १२-१८, २६ (१६) जम्बूद्वीप को घेरे हुए जगती के चारों दिशाओं के पार द्वारों में एक द्वार । हपु० ५.३७७, ३९० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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