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________________ वृद-वृषसेन वृन्द-कौरवों का पक्षधर एक राजा। यह राजा शतायुध के साथ युद्ध में मारा गया था। पापु० २०.१५२ वृन्दारक-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का बावनवाँ पुत्र । पापु० ८.१९९ वृन्दावन-मथुरा का समीपवर्ती एक नगर। कृष्ण के पालक नन्द और यशोदा इसी नगर के निवासी थे । मथुरा से यहाँ जाने के लिए यमुना नदी को पार करना होता है । हपु० ३५.२७-२९ वृष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११६ वृषकेतु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११६ वृषध्वज-(१) वैदिशपुर का राजा। इसकी रानी दिशावली और पुत्री दिशानन्दा थी। हपु० ४५.१०७-१०८, पापु० १४.१७४-१७५ (२) कुरुवंश का एक राजा। इसे वृषानन्द से राज्य मिला था। हपु० ४५.२८ वृषपति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. वृषभ-(१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३३, ७०, २५.७५, १००, १४३, हपु० १.३, दे० ऋषभ (२) राक्षस महाकाल से प्रद्युम्न को प्राप्त एक रथ । मपु० ७२. १११ (३) चौथे बलभद्र सुप्रभ के पूर्वभव के दीक्षागुरु । पपु० २०.२३४ वृषभवत्त-(१) कुशाग्रपुर का एक श्रावक । इसने तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । पपु० २१.३८-३९, हपु० १६.५९ (२) राजपुर नगर का एक सेठ। इसकी स्त्री पद्मावती और पुत्र जिनदत्त था। यह अन्त में मुनिराज गणपाल के निकट दीक्षित हो गया था। इसकी पत्नी ने भी आर्यिका सुव्रता से संयम धारण कर लिया था। मपु० ७५.३१४-३२० (३) एक सेठ। इसकी स्त्री सुभद्रा थी। किसी वनेचर से इसे चेटकी की पुत्री चन्दना प्राप्त हुई थी। इसका अपर नाम वृषभसेन था। मपु०७४.३३८-३४२, ७५.५२-५४ दे० वृषभसेन-३ वृषभध्वज-(१) सूर्यवंशी एक राजा। यह राजा वीतभी का पुत्र और गरुडांक का पिता था। पपु० ५.८, हपु० १३.११ (२) उज्जयिनी का राजा। इसकी रानी कमला थी। मपु० ७१.२०८-२०९, हपु० ३३.१०३ (३) महापुर नगर के राजा छत्रच्छाय और रानी श्रीदत्ता का पुत्र । पूर्वभव में इसे मरते समय पद्मरुचि जैनी ने नमस्कार मंत्र सुनाया था जिसके प्रभाव से यह तिर्यंच योनि से मनुष्य हुआ था। इसने अपने पूर्वभव के मरणस्थान पर जैन-मन्दिर बनवाकर मन्दिर के द्वार पर अपने पूर्वभव का एक चित्रपट लगवाया था। मन्दिर में दर्शनार्थ आये अपने पूर्वभव के उपकारी पद्मरुचि को पाकर उसके चरणों में नमस्कार कर उसकी इसने पूजा की थी। अनुरागपूर्वक पद्मरुचि के साथ इसने चिरकाल तक राज्य किया था। दोनों ने जैन पुराणकोश : ३८५ अनेक जिनमन्दिर और जिन प्रतिमाएं बनवाई थीं । अन्त में समाधिपूर्वक मरकर दोनों ऐशान स्वर्ग में देव हुए । पपु० १०६.३८-७० (४) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३३, २५.११६ वृषभपर्वत-जम्बद्वीप के भरत और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी एक-एक तथा विदेहक्षेत्र के बत्तीस कुल चौंतीस पर्वत । भरतेश ने इसी पर्वत पर काकणी-रत्न से अपनी प्रशस्ति लिखी थी। यह पर्वत सौ योजन ऊंचा है। मूल में भी यह सौ योजन और शिखर पर पचास योजन विस्तृत है। यह आकल्पान्त अविनश्वर, आकाश के समान निर्मल, नाना चक्रवतियों के नामों से उत्कीर्ण तथा देव और विद्याधरों द्वारा सेवित है। मपु० ३२.१३०-१६०, हपु० ५.२८०, ११.४७-४८ वृषभसेन-(१) तीर्थंकर वृषभदेव के पुत्र एवं पहले गणधर । वृषभदेव ने इन्हें गन्धर्वशास्त्र पढ़ाया था। ये चार ज्ञान के धारी थे। सप्त ऋद्धियों से विभूषित थे। सातवें पूर्वभव में ये राजा प्रोतिवर्धन के मन्त्री, छठे पूर्वभव में भागभूमि में आर्य, पांचवें में कनकप्रभ देव, चौथे में आनन्द, तीसरे में अहमिन्द्र, दूसरे में राजा वनसेन के पुत्र पीठ और प्रथम पूर्वभव में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र थे। इस भव में ये चक्रवर्ती भरतेश के छोटे भाई हुए। इन्हें पुरिमताल नगर का राजा बनाया गया था। ये चरमशरीरी थे। इन्होंने वृषभदेव को केवलज्ञान प्रकट होने पर अन्य राजाओं के साथ उनकी वन्दना की थी। उनसे संयम धारण करके उनके ही ये प्रथम गणधर भी हुए। आयु के अन्त में कर्म नाश कर मुक्त हुए। मपु० ८.२११२१६, ९.९०-९२, ११.१३, १६०, १६.२-४, १२०,२४.१७१-१७३, ४७.३६७-३६९, ३९९, पपु० ४.३२, हपु० ९.२३, २०५, १२.५५, वीवच० १.४० (२) राजगृही का राजा। इसने तीर्थकर मुनिसुव्रत को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । मपु० ६७.४५ (३) वत्स देश के कौशाम्बी नगर का एक सेठ। इसके मित्रवीर कर्मचारी ने अपने मित्र भोलराज से चन्दना (चेटक की पुत्री) प्राप्त करके इसे ही सौंपी थी। भद्रा इसकी पत्नी थी। उसने चन्दना के साथ अपने पति के अनुचित सम्बन्ध समझ कर पति के प्रवास काल में चन्दना को सांकलों से बांध रखा या। यह चन्दना को पुत्री के समान समझता था। प्रवास से लौटकर इसने चन्दना को अपना पूर्ण सहयोग दिया था। इसका अपर नाम वृषभदत्त था। मपु० ७५.५२ ५७, वीवच० १३.८४-८८ वृषभांक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११६ वृषभांकित ध्वजा-समवसरण की दस प्रकार की ध्वजाओं में एक ध्वजा । प्रत्येक दिशा में ये एक सौ आठ होती हैं । इन ध्वजाओं पर वृषभ का अंकन किया जाता है । मपु० २२.२१९-२२०, २३३ वृषसेन-राजा जरासन्ध का पक्षधर एक राजा । कृष्ण-जरासन्ध युद्ध में यह जरासन्ध का पक्षधर योद्धा था । मपु० ७१.७८ प्रत्यक Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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