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________________ बीतशोका-वीरभद्र वीतशोका-(१) एक नगर । इसका अपर नाम वीतशोकपुर था । मपु० ५९.१०९, हपु० २७.५ दे० वीतशोकपुर--१ (२) एक नगर । इसका भी अपर नाम वोतशोकपुर था । हपु० ६०.४३, ६८-६९ दे० वीतशोकपुर--२ (३) विजयाध की उत्तर णी में स्थित पच्चीसवीं नगरी । हपु० १९.८१, ८७ (४) विदेहक्षेत्र के सरिता देश की राजधानी । मपु० ६३.२११, २१६ (५) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित वत्स-देश को कौशाम्बी नगरी के राजा मघवा की महादेवी । रघु इसका पुत्र था। मपु० ७०.६३-६४ दे० मघवा--१ वीतशोकापुरी-जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व की ओर विद्यमान एक ___ नगरी । यहाँ का राजा नरवृषभ था । मपु० ६१.६६ वीथी-समवसरणभूमि के मार्ग । इस भूमि के चारों महादिशाओं में दो-दो कोश विस्तृत ऐसी चार महावीथियाँ होती हैं । ये अपने मध्य में स्थित चार महास्तम्भों के पीठ धारण करती हैं । हपु० ५७.१० वीभत्स-रावण का एक सिंहरथी सामन्त । पपु० ५७.४६, ४८ वीरंजय-चक्रवर्ती भरतेश का पुत्र । यह जयकुमार के साथ दीक्षित हो गया था। मपु० ४७.२८२-२८३ वीर-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२४ (२) विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी का चौबीसवां नगर। हपु० २२.८८ (३) बलदेव और कृष्ण के रथ की रक्षा करने के लिए उनके पृष्ठरक्षक बनाये गये वसुदेव के पुत्रों में एक पुत्र । हपु० ५०.११५११७ (४) राजा स्तिमितसागर का पुत्र । ऊर्मिमान् और वसुमान् इसके बड़े भाई और पातालस्थिर इसका छोटा भाई था। हपु० ४८.४६ (५) सौधर्म युगल का पाँचवाँ पटल । हपु० ६.४४ (६) एक नृप । यह सीता के स्वयंवर में समिलित हुआ था। 'पपु० २८.२१५ (७) जन्माभिषेक के पश्चात राजा सिद्धार्थ और रानी प्रिय- कारिणी के पुत्र के लिए इन्द्र द्वारा अभिहित दो नामों-वीर और वर्द्धमान में एक नाम । वर्द्धमान इनका अपर नाम था। यह नाम इन्हें कर्मों को जोतने से प्राप्त हुआ था। पाण्डवपुराण के अनुसार इन्हें यह नाम संगम नामक देव से प्राप्त हुआ था। यह देव सर्प के रूप में क्रीडा के समय महावीर के पास आया था। महावीर ने इसे पराजित कर अपने धैर्य और पराक्रम का परिचय दिया था। उस समय उस -संगम देव ने इन्हें "वीर" कहकर इनकी स्तुति की थी। मपु० ७४. २५२, २६८, २७६, हपु० २.४४-४७, पापु० १.११५, वोवच० १.३४ दे० महावीर जैन पुराणकोश : ३८३ (८) राजा वृषभदेव और रानी यशस्वती का पुत्र । आगे यही वृषभदेव का गुणसेन नामक गणधर हुआ। मपु० १६.३,४७.३७५ दे० गुणसेन बोरक-जम्बूद्वीप के वत्स देश की कौशाम्बी नगरी का एक वैश्य । वनमाला इसकी स्त्री थी। राजा सुमुख ने इसकी स्त्री का अपहरण करके उसे अपनी पत्नी बनाया था। यह मरकर-तप के प्रभाव से देव हुआ। इस पर्याय में इसने अवधिज्ञान से पूर्वभव में बैरी सुमुख को विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के हरिपुर नगर में उत्पन्न हुआ जाना । इसने सुमुख के जीव-हरिक्षेत्र के विद्याधर को वहां से लाकर भरतक्षेत्र में छोड़ा था। इसका अपर नाम वीरदत्त था। पपु० २१, २-६, हपु० १४.१-२, ६१ दे० वीरदत्त-१ वीरवत्त-(१) कलिंग देश के दन्तपुर नगर का एक वैश्य । यह भालों के भय से अपने साथियों और पत्नी वनमाला के साथ जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में आकर सुमुख सेठ के पास रहने लगा था । सुमुख सेठ इसकी पत्नी वनमाला को देखकर उस पर आसक्त हो गया था। उसने इसे बारह वर्ष के लिए व्यापार करने बाहर भेजकर इसकी पत्नी को अपनी स्त्री बना लिया था । बारह वर्ष बाद लौटने पर स्त्री को प्रतिकूल स्थिति देखकर यह विरक्त हो गया था तथा इसने प्रोष्ठिल मुनि के पास जिनदीक्षा ले ली थी । आयु के अन्त में सन्यासमरण करके यह सौधर्म स्वर्ग में चित्रांगद देव हुआ । इसका अपर नाम वीरक था । मपु० ७०.६३७२, पापु० ७.१२१-१२६ ' (२) एक मुनि । इन्होंने यति शिवगुप्त द्वारा सौंपे गये मुनि वशिष्ठ को छ: मास पर्यन्त अपने पास रखा था। हपु० ३३.७२-७३ वीरदीक्षा-निर्भय और वीर पुरुषों द्वारा ग्रहण की गयी निर्ग्रन्थ दीक्षा । ऐसा दीक्षित पुरुष देव, शास्त्र और गुरु को छोड़कर किसी अन्य को प्रणाम नहीं करता । मपु० ३४.१०९ वीरनन्दी-एक मुनि । जीवन्धरकुमार के गुरु सिंहपुर के राजा आर्यवर्मा ने धृतिषेण पुत्र को राज्य देकर इनसे संयम धारण किया था। मपु० ७५.२८१-२८२ वीरपट्ट-वीरता का प्रतीक-मुकुट । मेधकुमार को जीत लेने पर जयकुमार को चक्रवर्ती भरतेश ने यही पट्ट बाँधा था। मपु० ४३.५०-५१ aurनगर । तीर्थकर नमिनाथ को इसी नगर के राज दत्त न ___ आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । मपु० ६९.३०-३१, ५६ वीरबाहु-राजा वनजंघ और रानी श्रीमती का पुत्र । यह राजर्षि वबाहु के साथ मुनि यमधर से अपने अन्य सत्तानवे भाइयों के साथ संयमी हो गया था। मपु०८.५८-५९ वीरभा-एक चारणऋद्धिधारी मुनि । ये चारण मुनि गुणभद्र के साथ जठरकौशिक की एक तापसों की बस्ती में आये थे। दोनों ने बस्ती के नायक तपस्वी वशिष्ठ के पंचाग्नि-तप को अज्ञान तप कहा था। इस पर कुपित होकर वशिष्ठ ने इनसे अज्ञान क्या है ? यह जानने की इच्छा प्रकट की थी। इनके साथी गुणभद्र ने वशिष्ठ को युक्ति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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