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________________ विश्वभूतेश-विषय जैन पुराणकोश : ३८१ १०४ देखकर भोगों से विरक्त हो गया । फलस्वरूप इसने अपने छोटे (३) घातकीखण्ड द्वीप के विदेहक्षेत्र में मंगलावती देश के रत्लभाई विशाखभूति को राजा तथा पुत्र विश्वनन्दी को युवराज बनाया। संचय नगर का राजा । इसकी रानी अनुन्दरी थी। यह युद्ध में अन्त में इसने तीन राजाओं के साथ श्रीधर मुनि के पास मुनिदीक्षा अयोध्या के राजा पदमसेन द्वारा मार डाला गया था। इसका अपर ले ली। मपु० ७४.८६-९१, ५७.७०-७४, वीवच० ३.१०-१७ नाम विश्वदेव था। हपु. ६०.५८-५९ दे० विश्वदेव (३) जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित पोदनपुर नगर का एक (४) कुन्ती पुत्र कर्ण का पुत्र । यह महाभारत युद्ध में पाण्डवों द्वारा ब्राह्मण । अनुन्धरी इसकी पत्नी तथा कमल और मरुभूति पुत्र थे। मारा गया था। पापु० २०.२५४ मपु० ७३.६-९ (५) एक कौरववंशी राजा । हपु० ४५.१७-१८ विश्वभूतेश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० विश्वांक-नागनगर का एक ब्राह्मण । इसकी अग्निकुण्डा स्त्री तथा २५.१०३ श्रुतिरत पुत्र था । पपु०८५.४९-५१ विश्वमुट-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२३ विश्वा-शामिली-नगरी के ब्राह्मण वसुदेव की स्त्री। इस दम्पत्ति ने विश्वमूर्ति-सौधर्मन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. मुनि श्रीतिलक को आहार दिया था। दोनों मरकर इस आहार-दान के प्रभाव से भोगभूमि में उत्पन्न हुए । पपु० १०८.३९-४२ विश्वयोनि-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । विश्वात्मा--सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०१ मपु० २४.३२, २५.१०१ विश्वानल-(१) कौशाम्बी नगरी का राजा । यह ब्राह्मण था । इसकी विश्वराड्-भरतेश द्वारा वृषभदेव का एक नाम । धपु० २४.३२ स्त्री प्रतिसंध्या और पुत्र रौद्रभूति था। पपु० ३४.७७-७८ प्रतिसंध्या विश्वरीश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. (२) चौथा रुद्र । हपु० ६०.५३४-५३६ दे० रुद्र विश्वावसु-(१) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में धवल-देश की स्वस्तिकावतीविश्वरूप-समुद्र विजय के भाई राजा धरण का पांचवां पुत्र । हपु. नगरी का राजा । श्रीमती इसकी रानी और वसु इसका पुत्र था। यह ४८.५० पुत्र वसु को राज्य देकर दीक्षित हुआ और तप करने लगा था। मपु० विश्वरूपात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० ६७.२५६-२५७, २७५ २५.१२३ (२) राजा वसु का पुत्र । हपु० १७.५९ विश्वलोकेश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० (३) देवों का एक भेद । इस जाति के देव जिनाभिषेक के समय २५.१०२ स्तुति करते हैं । पपु० ३.१७९-१८० हपु० ८.१५८ विश्वलोचन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० विश्वासी-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२३ २५.१०२ विश्वविद्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०१ विश्वेद-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३१, २५.१२३ विश्वविद्यामहेश्वर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० विश्वेश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०२ २५.१२१ विश्वविद्यश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० विष-एक प्रकार के मेघ । अवसर्पिणी काल के अन्त में सरस, विरस, २५.१०१ तीक्ष्ण, रूक्ष, उष्ण और विष नाम के मेघ क्रमशः सात-सात दिन तक विश्वव्यापी-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । खारे पानी की बरसा करते हैं । मपु० ७६.४५२-४५३ मपु० २४.३२, २५.१०२ विषद-उग्रसेन के चाचा राजा शान्तन का पुत्र । हपु० ४८.४० विश्वशीर्ष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०। विवमोचिका–चक्रवर्ती भरतेश की पादुकाएँ । मपु० ३७.१५८, पपु० २५.१२० ८३.१२, पापु० ७.१९ विश्वसु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२३ विषय-(१) देश । मपु० ६२.३६३, हपु० २.१४९ विश्वसेन-(१) हस्तिनापुर के राजा अजितसेन तथा रानी प्रियदर्शना (२) इन्द्रिय-भोगोपभोग । ये स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और स्वर के का पुत्र । गान्धार-नगर के राजा अजितंजय और रानी अजिता की भेद से पांच प्रकार के होते हैं। इनमें स्पर्श के आठ, रस के छ:, पुत्री ऐरा इसकी रानी थी। तीर्थङ्कर शान्तिनाथ इसके पुत्र थे । गन्ध के दो, वर्ण के पांच और स्वर के सात भेद कहे हैं । इस प्रकार इसकी दूसरी रानी का नाम यशस्वती था। चक्रायुध इसी रानी का स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों के कुल पुत्र था। मपु० ६३.३८२-३८५, ४०६, ४१४, पपु० २०.५२, हपु० अट्ठाईस विषय होते हैं। इनके इष्ट और अनिष्ट की अपेक्षा से ४५.१७-१८, पापु० ५.१०२-२०३, ११०, ११४-११५, २०.५ प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं। अतः भेद-प्रभेदों को मिलाकर ये (२) वाराणसी नगरी का राजा । ब्राह्मी इसकी रानी और तीर्थ- छप्पन होते है। ये विषय आरम्भ में सुखद् और परिणाम में दुखद ङ्कर पार्श्वनाथ पुत्र थे । मपु० ७३.७४-९२ होते हैं। इनका सेवन संसार-भ्रमण का कारण है । मपु० ४.१४९, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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