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________________ ३७८ : जैन पुराणकाश विख्यात था । राजा जालन्धर ने इसको गायों का हरण किया था। फलस्वरूप इसने जालन्धर से युद्ध किया और युद्ध में यह पकड़ा गया था । युधिष्ठिर के कहने पर भीम ने तो इसे मुक्त कराया और अर्जुन ने इसको गायें मुक्त कराई थी। इस सहयोग से कृतार्थ होकर इसने अपनी पुत्री उत्तरा अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ विवाही थी। मपु० ७२.२१६, हपु० ४६.२३, पापु० १७.२४१-२४४, १८.२८ ३१, ४०-४१, १६३-१६४ विराषित-एक विद्याधर । यह राजा चन्द्रोदर और रानी अनुराधा का पुत्र था। इसके पिता अलंकारपुर नगर के नृप थे । खरदूषण ने उन्हें नगर से निकाल दिया था । गर्भावस्था में ही इसकी माँ अनुराधा वन-वन भटकती रहो। उसने मणिकान्त पर्वत की एक समशिला पर इसे जन्म दिया था। गर्भ में ही शत्रु द्वारा विराधित किये जाने से इसका "विराथित" नाम प्रसिद्ध हुआ । यह राम का योद्धा था। इसने रावण के पक्ष के विघ्न नामक योद्धा के साथ युद्ध किया था। लंका विजय के बाद राम ने इसे श्रीपुर नगर का राजा बनाया था । राम के दीक्षित होने पर विभीषण, सुग्रीव, नल, नील, चन्द्रनख और क्रव्य के साथ इसने भी दीक्षा धारण कर ली थी। पपु० ९.३७-४४, ५८.१५-१७, ६२.३६, ८८.३९, ११९.३९ विराम-उक्तिकौशल कला की-स्थान, स्वर, संस्कार, विन्यास, काकु, समुदाय, विराम, सामान्याभिहित, समानार्थत्व और भाषा इन दस जातियों में चौथी जाति । किसी विषय का संक्षेप में उल्लेख करना विराम कहलाता है । पपु० २४.२७-२८, ३२ विरुद्धराज्यातिक्रम-अचौर्याणुव्रत का तीसरा अतीचार । अपने राज्य की आज्ञा को न मानकर राज्य विरुद्ध क्रय-विक्रय करना। हपु० । ५८.१७१ विलम्बित-गाते समय व्यवहृत द्रुत, मध्य और विलम्वित इन तीन वृत्तियों में से एक वृत्ति । पपु० १७.२७८, २४.९ विलापन-पांच फणवाला बाण । यह बाण नागराज ने प्रद्य म्न को दिया था । मपु० ७२.११८-११९ विलीनत्व-संसारी जीव का एक गुण । एक शरीर से दूसरे शरीर में संक्रमण करना विलीनता कहलाती है । मपु० ४२.९१ विलीनाशेषकल्मष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२५ विवर्धन-चक्रवर्ती भरतेश के चरमशरीरी तथा आज्ञाकारी पांच सौ पुत्रों में दूसरा पुत्र । अर्ककीर्ति इसका बड़ा भाई था । किसी समय चक्रवर्ती के साथ इस सहित नौ सौ तेईस राजकुमार वृषभदेव के समवसरण में गये । इन्होंने तीर्थकर के कभी दर्शन नहीं किये थे। ये अनादि से मिथ्यादृष्टि थे। तीर्थङ्कर वृषभदेव की विभूति देखकर अन्तर्मुहूर्त में ही ये सम्यग्दृष्टि होकर संयमी हो गये थे। हपु० ११.१३०, १२. ३-५ विवाबी-स्वर प्रयोग के वादी, संवादी, विवादी और अनुवादी चार भेदों में तीसरा भेद । हपु० १९.१५४ विराषित-विशल्यकारिणी विवाह-एक संस्कारद। यह गृहस्थों का एक सामाजिक कार्य है । विवाह न करने से सन्तति का उच्छेद हो जाता है तथा सन्तति के उच्छेद से सामाजिक विशृंखलता और उसके फलस्वरूप वंश-विच्छेद हो जाता है। वर या वधू में आवश्यक गुण माने गये थे-कुल, शील और सौन्दर्य । यह उत्सव सहित सम्पन्न किया जाता है । इस समय दान-सम्मान आदि क्रियाएं की जाती है। दहेज भी यथाशक्ति दिया जाता है । शुभ दिन और शुभ लग्न में एक सुसज्जित मण्डप में बैठाकर वर-वधू का पवित्र जल से अभिषेक कराया जाता और उन्हें वस्त्र तथा आभूषण पहनाये जाते हैं । ललाट पर चन्दन लगाया जाता है । वेदीदीपक और मंगल द्रव्यों से युक्त होती है। वर और कन्या को वहाँ बैठाकर वर के हाथ पर कन्या का हाथ रखा जाता है और जलधारा छोड़ी जाती है। इसके पश्चात् अग्नि की सात प्रदक्षिणाएं देने के अनन्तर यह गुरुजनों की साक्षी में होता है। यह गर्भान्वय की वेपन क्रियाओं में सत्रहवीं क्रिया है। मपु० ७.२२१-२५६, ८.३५-३६, १०.१४३, १५.६२-६४, ६८-६९, ७५, १६.२४७, ३८.५७, १२७ १३४, ३९.५९-६०, ७२.२२७-२३०, हपु० ३३.२९ । विवाहकल्याणक-विवाह का उत्सव । इस समय विवाह-मण्डप बनाया जाता है और उसे सजाया जाता है । वर और वधू अलंकृत किये जाते है। दान, मान और सम्भाषण से आगन्तुकों का सम्मान किया जाता है । इस उत्सव को सूचित करने के लिए मंगल भेरी बजाई जाती है। परिणय गुरुजनों, बन्धुओं और मित्रों की साक्षी में होता है। मपु० . ७.२१०, २२२-२२३, २३८-२९०, १५.६८-७५ विविक्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२४ विविक्त-शय्यासन-छः बाह्य तपों में पाँचौं तप । व्रत की शुद्धि के लिए पशु तथा स्त्री आदि से रहित एकान्त प्रासुक स्थान में ध्यान तथा स्वाध्याय आदि करना विविक्तशय्यासन-तप कहलाता है । मपु० १८.६८, पपु० १४.११४, हपु० ६४.२५, वीवच० ६.३६ विविधयोग-विविध योनियों में जीव का परिभ्रमण करना । मपु० । ४२.९२ विवेक-प्रायश्चित्त के नौ भेदों में चौथा भेद । इसमें अन्न-पान का विभाग किया जाता है । इसके लिए दोषी मुनि को निर्दोष मुनियों के साथ चर्या के लिए जाने की अनुमति नहीं दी जाती। उसे पीछीकमण्डलु पृथक् रखने के लिए कहा जाता है । अन्य मुनियों के आहार के पश्चात् ही आहार की अनुमति दी जाती है। हपु० ६४.३५ दे० प्रायश्चित्त विवेकी-देव, शास्त्र, गुरु और धर्म का निर्दोष विचार करनेवाला पुरुष । वीवच०८.३६ विवेव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४६ विशल्य-दुर्योधन की सेना का एक योद्धा । पापु० १७.९० विशल्यकरण-एक विद्यास्त्र । चण्डवेग ने यह अस्त्र वसुदेव को दिया था । हपु० २५.४९ विशल्यकारिणी-धरणेन्द्र द्वारा विद्याधर नमि और विनमि को दी गयी विद्याओं में एक विद्या । हपु० २२.७१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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