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________________ अनावृष्णि-अनोकदत्त जैन पुराणकोश : १९ जाम्बव को पुत्री जाम्बवती का अपहरण करने पर विरोध स्वरूप आये राजा जाम्बव के साथ इसी ने युद्ध किया था तथा युद्ध में राजा जाम्बव को बाँधकर श्रीकृष्ण को दिखाया था। नीतिज्ञ ऐसा था कि इसका पिता भी समय पर इसी से परामर्श किया करता था। हपु० ३६.१२, ४४.८-१५, ५१.१२, ३४-४१ अनावृष्णि-वसुदेव का पुत्र । हपु० ३२.२२ अनाइवान्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. बाण को जीतकर उषा सहित इसे वापिस अपने नगर लाये थे । इसका अपर नाम अनंगशरीरज था । हपु० ५५.१६-२७ अनिल-एक राक्षसवंशी नृप। राजा गतप्रभ के पश्चात् यह लंका का स्वामी हुआ था। यह माया और पराक्रम से युक्त था; विद्या, बल और महाकान्ति का धारी था। संसार से भयभीत हो वंश-परम्परा से आगत राजलक्ष्मी अपने पुत्र को सौंपकर अन्त में दीक्षा धारण कर ली थी । पपु० ५.३९७-४०१ अनिलवेग-(१) शिवंकरपुर नगर का स्वामी, कान्तवती का पति और उससे उत्पन्न हरिकेतु और भोगवती का पिता। मपु० ४७.४९-५०, (२) राजा वसुदेव और उसकी रानी श्यामा का द्वितीय पुत्र, ज्वलन का अनुज । हपु० ४८.५४ ।। अनिलवेगा-विजयाध पर्वत पर स्थित अलका नगरी के राजा विद्याधर विद्युदंष्ट्र की रानी, सिंहस्थ की जननी। मपु० ६३.२४१, पापु० अनिवर्तक-आगामी बीसवें तीर्यकर । महापुराण में इसको अनिवर्ती नाम से अभिहित किया गया है। मपु० ७६.४८०, हप० ६०.५५८ अनिकाचित-अग्रायणीयपूर्व को पंचम वस्तु के कम प्रकृति नाम के चतुर्थ प्राभूत के चौबीस योगद्वारों में इस नाम का बाईसौं योगद्वार । हप० १०.८१-८६ दे० अग्रायणीयपूर्व अनिच्छ-दूसरी शर्कराप्रभा पृथिवी (नरक) के प्रथम प्रस्तार संबंधी तरक नामक इन्द्रक बिल को पूर्व दिशा में स्थित महानरक । हपु० ४.१५३ दे० शर्कराप्रभा अनित्यानुप्रेक्षा-बारह अनुप्रेक्षाओं में पहली अनुप्रेक्षा । सुख, आयु, बल, सम्पदा सभी अनित्य हैं, जीवन मेघ के समान, देह वृक्ष की छाया सदृश और योवन जल के बुलबुलों के समान क्षणभंगुर है। आत्मा के अतिरिक्त कोई वस्तु नित्य नहीं है। शरीर रोगों का घर है, इन्द्रिय सुख क्षणभंगुर हैं, प्रत्येक वस्तु नाशवान् है, चक्रवतियों की राजलक्ष्मी भी अस्थिर है. इस प्रकार सांसारिक पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। मपु० ११.१०५, पपु० १४.२३७-२३९, पापु० २५.७५-८०, वोवच० ११.५-१३, दे० अनुप्रेक्षा अनित्वर-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४ अनिद्रालु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०७ अनिन्चिता-(१) रत्नपुर नगर के राजा श्रोषेण की रानी और उपेन्द्रसेन की जननो। आदित्यगति और अरिंजय चारण मुनियों को राजा द्वारा दिये गये दान की अनुमोदना से इसने उत्तरकुरु की आयु का बन्ध किया था। अन्त में विष-पुष्प को सूंघने से इसका मरण हुआ तथा यह मरकर आर्य हुई । मपु० ६२.३४०-३५०, ३५७-३५८ (२) एक देवी । यह मेरु की पूर्वोत्तर दिशा में नन्दन बन के बीच बलभद्रक कट के आठवें चित्रक कूट में निवास करती है। हपु० ५.३२८-३३३ अनिन्ध-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६७ अनिरुद्ध-प्रद्य म्न का पुत्र । यह जाम्बवती के पुत्र ( शम्भव ) के साथ संयमी हुआ था । दोनों प्रद्य म्न मुनि के साथ ऊर्जयन्त (गिरनार ) पर्वत पर प्रतिमायोग से कर्म-विनाश कर मोक्षगामी हुए। मपु० ७२. १८९-१९१ यौवन काल में विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी के श्रुत- शोणित नगर के राजा बाण की पुत्री उषा इसे अपना पति बनाना चाहती थी। उसकी कोई सखी इसके मनोगत भावों को जानकर इसे विद्याधर लोक में ले गयी, वहाँ उसने इसका कंकण बन्धन करा दिया। इधर इसके हरण किये जाने के समाचार जानकर श्रीकृष्ण, बलदेव, शम्ब और प्रद्युम्न आदि राजा बाण की नगरी पहुँचे और अनिवृत्ति-एक मुनि । वीतभय बलभद्र इन ही से दीक्षा लेकर आदित्याभ नाम का लान्तवेन्द्र हुआ था । हपु० २७.११-११४ अनिवत्तिकरण-करणलब्धि । हप० ३.१४२ इसमें जीवों की पारिणामिक विभिन्नता नहीं रहती। परिणामों की अपेक्षा से सभी जीव समान होते हैं । इस नवम गुणस्थान में आते ही जीव विशुद्ध परिणामी हो जाता है । उसके अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण संबंधी आठ तथा हास्यादि छः कषाएँ, त्रिवेद और संज्वलन, क्रोध, मान, माया और बादर लोभ नष्ट हो जाते हैं। मपु० २०२४३-२४६, २५३ स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह कर्म प्रकृतियों का भी नाश हो जाता है । वीवच० १३.११४-१२० दे० गुणस्थान अनिष्ट संयोगज-द्वितीय आर्तध्यान । इसमें अनिष्ट वस्त के संयोग होने पर उत्पन्न भाव अथवा अनिष्ट वस्तु की अप्राप्ति के लिए चिन्तन होता है । मपु० २१.३२, ३५-३६ दे० आर्तध्यान अनीक-देवों की एक जाति । पदाति, अश्व, वृषभ, रथ, गज, गन्धर्व और नर्तक के भेद से इनकी सात प्रकार की सेना होती है। मपु० २२.१९-२८ हपु० ३८.२२-२९, अनीकदत्त-वसुदेव और देवकी का तृतीय पुत्र । नृपदत्त और देवपाल इसके अग्रज तथा अनीकपाल, शत्रुघ्न, जितशत्रु और कृष्ण अनुज थे। मपु० ७१.२९५-२९६, हपु० ३३.१७०-१७१ पांचवें पूर्वभव में यह मथुरा के करोड़पति भानु सेठ का पुत्र था, और चौथे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग में देव था, वहाँ से च्युत होकर यह तीसरे पूर्वभव में नित्यालोक नगर के राजा चित्रचूल और उनकी रानी मनोहारी का Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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