SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ : जैन पुराणकोश यज्वा-यमुनावत्ता से व्रतों के चिह्न के स्वरूप एक से लेकर ग्यारह तार के सूत्र व्रतियों को दिये थे तथा उन्हें, इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया था। सूत्र के तीन तार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों के सूचक है । असि, मषि, कृषि और वाणिज्य कर्म से आजीविका करनेवाले द्विज इसके पात्र होते हैं। इसके धारण करनेवाले को मांस, परस्त्री-सेवन, अनारंभी हिंसा, अभक्ष्य और अपेय पदार्थों का त्याग करना होता है । यह संस्कार बालक के आठवें वर्ष में सम्पन्न किया जाता है । मपु० ३८.२१-२४, १०४, ११२, ३९.९४-९५, ४०.१६७-१७२, ४१.३१ यज्वा-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४२ यति-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१३ (२) जीव मात्र के कल्याण की भावना रखने वाले साधु । समवसरण में इनका पृथक् स्थान होता है। मपु० ९.१६६, हपु० ३.६१ (३) संगीत के तालगत गान्धर्व का एक भेद । हपु० १९.१५१ यतिधर्म-सर्व आरम्भ त्यागी और देह से निःस्पृही साधुओं का पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करना । पपु० ४.४७-४९, पापु० ९.८२ दे० मुनिधर्म यतिवर-भरतक्षेत्र के एक मुनि । इन्होंने याज्ञिक हिंसा को अधर्म बता कर राजा सगर की भ्रांति दूर की थी। मपु० ६७.३६५-३६७ यतिवृषभ-विदेहक्षेत्र के एक ऋषि । सुसीमा नगरी का राजा सिंहरथ उल्कापात देखने से विरक्त होकर इन्हीं से संयमी हुआ था। मपु० ६४.२-९ यतीन्द्र-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७० यतीश्वर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०७ यथाल्यातचारित्र-मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होने पर प्राप्त आत्मा का शुद्ध स्वरूप । इसे मोक्ष का साधन कहा है । यह कषाय रहित अवस्था में उत्पन्न होता है। मपु० ४७.२४७, हपु० ५६.७८, शाखावली से ऋक्षरज की पराजय के समाचार ज्ञातकर रावण ने इससे युद्ध किया था । इस युद्ध में यह पराजित हुआ। यह रथ रहित होने पर रथनपुर गया। वहाँ इसने इन्द्र विद्याधर से लोकपाल का कार्य नहीं करने की इच्छा प्रकट की थी। इन्द्र विद्याधर इसका जामाता था। उसे इसकी पुत्री सर्वश्री विवाही गयी थी। अतः इन्द्र ने इसका सम्मान किया। इसे सुरसंगीत नगर का स्वामित्व प्राप्त हआ। दशानन ने इससे किष्किन्धनगर और किष्कूपुर छीनकर क्रमशः सूर्यरज और ऋक्षराज विद्याधरों को दे दिये थे । पपु०७.११४-११५, ८.४३९-४९८ (४) नन्दनवन की दक्षिण दिशा के चारण भवन का एक देव । हपु० ५.३१५-३१७ यमकूट-(१) निषध पर्वत की उत्तर दिशा में सीतोदा नदी के तट पर स्थित एक कूट । हपु० ५.१९२-१९३ (२) निषध पर्वत के यभकूट का एक देव । हपु० ५.१९२-१९३ यमदण्ड-(१) रावण का एक मंत्री। रावण के विद्या-सिद्धि के समय मन्दोदरी ने इसे सभी नागरिकों को संयम से रहने की घोषणा कराने का आदेश दिया था। पपु० ६९.११-१४ (२) एक विद्यास्त्र । अपने पिता को बन्धनों से मुक्त कराने के लिए चण्डवेग विद्याधर ने यह अस्त्र अपने बहनोई वसुदेव को दिया था। हपु० २५.४८ यमधर-(१) एक राजर्षि । राजा वज्रबाहु और उनके वीरबाहु आदि अट्ठानवे पुत्र तथा पाँच सौ अन्य राजा इन्हीं से संयमी हुए थे। मपु० ८.५७-५८ (२) सिद्धकूट पर विराजमान एक गुरु-मुनि । चन्द्रपुर नगर के राजा विद्याधर महेन्द्र की पुत्री कनकमाला ने इन्हों से अपनी भवावलि सुनकर मुक्तावली व्रत लिया था । मपु० ७१.४०५-४०८ यमन-एक देश । इस देश का राजा कृष्ण का पक्षधर था। हपु० ५०.७३ यमुनवेव-शत्रुघ्न के पूर्वभव का जीव । यह जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र की मथुरा नगरी का निवासी था । यह अधार्मिक तथा क्रूर था। पपु० ९१.५-१० यमुनावत्ता-(१) कुन्दनगर के समुद्र संगम की स्त्री। यह विद्य दंग की जननी थी । पपु० ३३.१४३-१४४ (२) मथुरा नगरी की निकटवर्तिनी एक नदी । इसका अपर नाम कालिन्दी-कलिंदकन्या था । मपु० ७०.३४६-३४७, ३९५-३९६ (३) मथुरा के बारह करोड़ मुद्राओं के अधिपति सेठ भानु की स्त्री । इन दोनों के सुभानु, भानुकीर्ति, भानुषेण, शूर, सूरदेव, शूरदत्त और शूरसेन से सात पुत्र थे । अन्त में इसने और इसकी पुत्र-वधुओं ने जिनदत्ता आयिका के समीप तथा इसके पति भानु सेठ और इसके पुत्रों ने वरधर्म मुनि से दीक्षा ले ली थी। मपु० ७१.२०१-२०६, २४३-२४४, हपु० ३३.९६-१००, १२६-१२७ यदु-यादव वंश का संस्थापक हरिवंशी एक राजा। यह अपने पुत्र नरपति को राज्य देकर तपश्चरण करता हुआ स्वर्ग गया। हपु० १८.६-७ यम-(१) निर्दोष चारित्र का पालन करने के लिए भोग और उपभोग की वस्तुओं का आजीवन त्याग । मपु० ११.२२० (२) तीर्थकर वृषभदेव का जन्माभिषेक करनेवाला एक देव । पपु० ३.१८५ (३) लोकपाल । यह कालाग्नि विद्याधर और उसकी स्त्री श्रीप्रभा का पुत्र था। यह रुद्रकर्मा और तेजस्वी था। इन्द्र विद्याधर ने इसे दक्षिण सागर के द्वीप में किष्कुनगर की दक्षिण दिशा में लोकपाल के पद पर नियुक्त किया था। किष्कुनगर सूर्यरज और ऋक्षरज दोनों विद्याधर भाइयों का था। अपना नगर लेने के लिए दोनों ने मध्यरात्रि में इससे युद्ध किया और दोनों असफल रहे । ऋक्षरज के किंकर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy