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________________ मेष-मोहनीय जैन पुराणकोश : ३०९ रानी। हिमगिरि इसका पुत्र तथा गान्धारी पुत्री थी। हपु० ४४. ४५-४८ मेष-पालतू पशु-भेड़ । आगम में अप्रत्याख्यानावरण माया की तुलना ___ इसी पशु के सींगों से की गयी है । मपु० ८.२३१ मेषकेतन-एक देव । इसने सीता की अग्नि परीक्षा के समय सीता के ऊपर आये उपसर्ग को दूर करने के लिए इन्द्र से कहा था किन्तु इन्द्र ने सकलभूषण मुनि की वन्दना की शीघ्रता के कारण इसे ही सोता की सहायता करने की आज्ञा दी थी। इसने भी अग्निकुण्ड को जलकुण्ड बनाकर और सीता को सिंहासन पर विराजमान दर्शाकर सीता के शील की रक्षा की थी। पपु० १०४.१२३-१२६, १०५.२९, ४८-५० मेषश्रृंग-एक वृक्ष । तीर्थकर नेमिनाथ को इसी वृक्ष के नीचे वैराग्य हुआ था। पपु० २०.५८ मैत्री-(१) मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं में प्रथम भावना-प्राणियों के सुखी रहने की समीचीन बुद्धि । मपु० २०.६५ (२) मित्रता-दो प्राणियों का एकचित्त होना । मपु० ४६.४० मैत्रेय-तीर्थकर महावीर के आठवें गणधर । मपु० ७४.३७३, हपु० ३.४१-४३ दे० महावीर मैथिक-राम के समय का सब्जी को स्वादिष्ट बनाने में व्यवहत एक ___ मसाला-मैथी । पपु० ४२.२० मैथुन-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं में तीसरी ___संज्ञा-कामेच्छा । मपु० ३६.१३१ मैरेय-उत्तरकुरु-भोगभूमि के निवासियों का एक पेय पदार्थ । यह मद्यांग जाति के कल्पवृक्षों से निकाला जाता था। यह सुगन्धित और अमृत के समान स्वादिष्ट होता था। मपु० ९.३७ मोक-चक्रवर्ती भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा छोड़े गये देशों में भरतक्षेत्र के मध्य आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.६५ मोक्ष-(१) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति चौथे प्राभृत के चौबीस योगद्वारों में ग्यारहवाँ योगद्वार । हपु० १०.८१-८६ (२) चार पुरुषार्थों में चौथा पुरुषार्थ । यह धर्म साध्य है और पुरुषार्थ इसका साधन है । हपु ९.१३७ (३) कर्मों का क्षय हो जाना। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप मार्ग से प्राप्त होता है। ध्यान और अध्ययन इसके साधन है। यह शुक्लध्यान के बिना नहीं होता है । इसे प्राप्त करने पर जीव “सिद्ध" संज्ञा से सम्बोधित किये जाते हैं । मोक्ष प्राप्त जीवों को अतुल्य अन्तराय से रहित अत्यन्त सुख प्राप्त होता है । इससे अनन्तज्ञान आदि आठ गुणों की प्राप्ति होती है । स्त्रियों के दोष स्वरूप और चंचल होने से उन्हें इसकी प्राप्ति नहीं होती। जीव स्वरूप की अपेक्षा रूप रहित है परन्तु शरीर के सम्बन्ध से रूपी हो रहा है अतः जीव का रूप रहित होना ही मोक्ष कहलाता है । इसके दो भेद है-भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । कर्मक्षय से कारण भूत अत्यन्त शुद्ध परिणाम भावमोक्ष और अन्तिम शुक्लध्यान के योग द्वारा सर्व कर्मों से आत्मा का विश्लेष होना द्रव्यमोक्ष है। मपु० २४.११६, ४३.१११, ४६.१९५, ६७.९-१०, पपु० ६.२९७, हपु० २.१०९, ५६.८३-८४, ५८.१८, वीवच० १६.१७२-१७३ मोक्षज्ञ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०८ मोक्षण-एक विद्यास्त्र । चण्डवेग ने वसुदेव के लिए अनेक अस्त्रों में एक अस्त्र यह भी दिया था। हपु० २५.४८ मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों से समन्वित मुक्ति मार्ग । मपु० २४.११६, १२०, पपु० १०५.२१०, हपु० ४७.१०-११ मोक्षशिला-सिद्धशिला। यह लोक के अग्रभाग में वर्तुलाकार पैंतालीस लाख योजन विस्तृत तथा बारह योजन मोटी है । वीवच० ११.१०९ मोघ-मानुषोत्तर पर्वत के अंककूट का निवासी देव । हपु० ५.६०६ मोधवाक्-सत्यप्रवाद की बारह भाषाओं में चोरी में प्रवृत्ति करानेवाली ___एक भाषा । हपु. १०.९६ मोच-मगध देश का एक फल-केला । भरतेश ने यह फल चढ़ाकर वृषभदेव की पूजा की थी। मपु० १७.२५२, पपु० २.१९ मोचनी-दशानन को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३३० मोदक्रिया-उपासक की पन क्रियाओं में पांचवीं क्रिया । यह गर्भ-पुष्टि के लिए नौवें मास में की जाती है। इसमें गर्भिणी के शरीर पर गात्रिकाबन्ध (बीजाक्षर) लिखा जाता है। उसे मंगलमय आभूषण आदि पहनाये जाते हैं तथा रक्षा के लिए कंकणसूत्र बाँधा जाता है। इस क्रिया में निम्न मन्त्र पढ़े जाते हैं-सज्जाति-कल्याणभागी भव, सद्गृहितकल्याणभागी भव, वैवाहककल्याणभागी भव, मुनीन्द्र कल्याणभागी भव, सुरेन्द्र कल्याणभागी भव, मन्दराभिषेक कल्याणभागी भव, यौवराज्यकल्याणभागी भव, महाराजकल्याणभागी भव, परमराज्यकल्याणभागी भव और आर्हन्त्यकल्याणभागी भव । मपु० ३८.५५, ८३-८४, ४०.१०३-१०७ मोह-सांसारिक वस्तुओं में ममत्व भाव । इसे नष्ट करने के लिए परिग्रह का त्याग कर सब वस्तुओं में समताभाव रखा जाता है । यह अहित और अशुभकारी है। इससे मुक्ति नहीं होती। जीव इसी के कारण आत्महित से भ्रष्ट हो जाता है। मपु० १७.१९५-१९६, ५९.३५, पपु० १२३.३४, वीवच ० ५.८, १०३ मोहन-(१) एक विद्यास्त्र । वसुदेव के साले चण्डवेग ने यह अस्त्र वसुदेव को दिया था। हपु० २५.४८ (२) नागराज द्वारा प्रद्युम्न को प्रदत्त तपन, तापन, मोहन विलापन और मारण इन पाँच बाणों में एक बाण । हपु० ७२.११८११९ (३) राक्षसवंशी एक विद्याधर नृप । यह भीम के बाद राजा बना था । पपु० ५.३९५ मोहनीय-आठ कर्मों में चौथा कर्म । इसकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ होती हैं । मूलतः इसके दो भेद है-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इसमें Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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