SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मित्रा-मिश्रगुणस्थान राजा सुकुण्डली की रानी। मणिकुण्डल इसका पुत्र था। मपु० ६२.३६१-३६२ (२) हस्तिनापुर के राजा सुदर्शन की रानी। तीर्थङ्कर अरनाथ इसके पुत्र थे। इसका अपर नाम मित्रा था। मपु० ६५.१५, पपु० २०.५४ मित्रा-(१) राजा सुदर्शन की रानी और तीर्थकर अरनाथ की जननी । पपु० २०.५४, हपु० ४५.२१-२२ दे० मित्रसेना-२ (२) कमलसंकुल नगर के राजा सुबन्धुतिलक की रानी, कैकयो का जननी । पपु० २२.१७३-१७४ (३) अरिष्टपुर के राजा रुधिर की रानी । इसके पुत्र का नाम हिरण्य और पुत्री का नाम रोहिणी था । हपु० ३१.८-११ मित्रानुराग-सल्लेखनाव्रत का पांचवाँ अतिचार-समाधि के समय मित्रों से किये अथवा उनके दिये गये प्रेम की स्मृति करना । हपु० ५८.१८४ मिथिला-भरतक्षेत्र के वंग देश की एक नगरी । तीर्थकर मल्लिनाथ का जन्म तथा दीक्षा के बाद उनकी प्रथम पारणा यहीं हुई थी। तीर्थकर नेमिनाथ और सातवें नारायण दत्त का जन्म भी इसी नगरी में हुआ था। मपु० ६६.२०-२१, ३४.५०, ६९.७१, पपु० २०.५५-५७, २२१,हपु० २०.२५ मिथिलानाथ-हरिवंशी राजा देवदत्त का पुत्र और हरिषेण का पिता । हपु०१७.३३-३४ मिथ्याज्ञान-अविद्या-अतत्त्वों में तत्त्वबुद्धि । मपु० ४२.३२ मिथ्यातप-संसार का कारणभूत तप । ऐसा तपस्वी अल्प ऋद्धिधारी देव हो सकता है और वहाँ से चयकर मनुष्य पर्याय भी प्राप्त कर सकता है, पर भवभ्रमण से नहीं छूटता । पपृ० ११४.३६ मिथ्यात्व-जीव आदि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान । इससे जोव संसार में भटकता है । चौदह गुणस्थानों में इसका सर्वप्रथम कथन है । अभव्य जीवों के यही गुणस्थान होता है, भले ही वे मुनि होकर दीर्घकाल तक दीक्षित रहें और ग्यारह अंगधारी क्यों न हो जावें । कर्मास्रव के पाँच कारणों में यह प्रथम कारण है। अन्य चार कारण हैं-असंयम (अविरति), प्रमाद, कषाय और योगों का होना। इसके उदय से उत्पन्न परिणाम श्रद्धा और ज्ञान को भी विपरीत कर देता है। इसके पाँच भेद है-अज्ञान, संशय, एकान्त, विपरीत और विनय । पाप से युक्त और धार्मिक ज्ञान से रहित जीवों के इसके उदय से उत्पन्न परिणाम अज्ञानमिथ्यात्व है। तत्त्व के स्वरूप में दोलायमानता संशयमिथ्यात्व है । द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ में अथवा रत्न- त्रय में किसी एक का ही निश्चय करना एकान्त मिथ्यादर्शन है। ज्ञान, ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय विपरीत मिथ्यादर्शन है और मन, वचन, काय से सभी देवों को प्रणाम करना, समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनयमिथ्यात्व है। मपु० ५४.१५१, ६२.२९६-३०२, वीवच० ४.४०, १६.५८-६२ मिथ्यात्वक्रिया-साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में दूसरी मिथ्यात्वद्धिनी क्रिया । इससे मिथ्या देवी-देवताओं की स्तुति पूजाभक्ति आदि में प्रवृत्ति होती है। हपु० ५८.६२, ६५ जैन पुराणकोश : २९९ मिथ्यात्वप्रकृति-अतत्त्व श्रद्धान उत्पन्न करानेवाला कर्म । आसन्नभव्य जीव पांच देशना आदि लब्धियों से युक्त होता हुआ तीन करणोंअधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा सम्यग्दृष्टि होता है । मपु० ९.१२० मिथ्यादर्शन-संसार भ्रमण का कारण । इससे युक्त जीव तियंञ्च और नरकगति के दुःखों को भोगते हैं। पपु० २.१९७, ६.२८० दे० मिथ्यात्व मिथ्यादर्शनक्रिया-साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में चौबीसवीं क्रिया । इसमें प्रोत्साहन आदि के द्वारा दूसरे के मिथ्यादर्शन के आरम्भ तथा उसमें दृढ़ता लाने में तत्परता होती है । हपु० ५८.८१ मिथ्यावर्शनवाक्-सत्यप्रवाद पूर्व में कथित बारह प्रकार की भाषाओं में बारहवीं-मिथ्यामार्ग का उपदेश करनेवाली भाषा । हपु० १०. ९१,९७ मिथ्या दृष्टि-प्रथम गुणस्थानवी जीव । यह मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबन्धीक्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों के उदय से अतत्त्व में श्रद्धान करनेवाला होता है । इस गुणस्थान में जीवों को स्व-पर का भेदज्ञान नहीं होता । आप्त, आगम और निर्ग्रन्थ गुरु पर ये विश्वास नहीं करते । दर्शन मोहनीय कर्म के कारण प्राणी इस गुणस्थान में निरन्तर बद्ध रहते हैं । इसमें भव्यता और अभव्यता दोनों होती हैं। इस गुणस्थानवाले जीव दान आदि पुण्यकार्यों से स्वर्ग के सुख भी पा लेते हैं । स्वर्ग में शान्त परिणामों के प्रभाव से काल आदि लब्धियाँ पाकर ये स्वयमेव अथवा दूसरों के निमित्त से समीचीन सम्यग्दर्शन रूप धर्म को प्राप्त कर सकते हैं । यह बात निकटकाल में मोक्ष प्राप्त करनेवाले भव्यमिथ्यादृष्टियों की अपेक्षा से कही है। परन्तु जो निरन्तर भोगों में आसक्त पर नारी रमण और आरम्भ परिग्रह के द्वारा पाप का संचय करते हैं वे संसार में भटकते हैं । मपु० २.२४, ७६.२२३-२२६, पपु० ९१.३४, हपु० ३.८०,९४, ९९-१००, ११९-१२० मिथ्यान्धकार-अज्ञान-अन्धकार । यह तप से दूर होता है। मपु० ५.१४८ मिथ्योपदेश-सत्याणुव्रत का प्रथम अतिचार-किसी को धोखा देना तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करनेवाली क्रियाओं में दूसरों की अन्यथा प्रवृत्ति कराना । हपु० ५८.१६६ मिश्रकेशी-(१) रुचकगिरि के उत्तरदिशावर्ती आठ कूटों में दूसरे अंककूट की वासिनी एक देवी। यह चमर लेकर जिनमाता की सेवा करती है । हपु० ५.७१५,७१७ (२) अंजना की एक सखी। इसने अंजना से कहा था कि विद्युत्प्रभ को छोड़कर तूने पवनंजय को ग्रहण करके अज्ञानता की है। इसे सुनकर पवनंजय अंजना से विमुख हो गया था। उसने अंजना को दुख देने का निश्चय किया था। पपु० १५.१५४-१५५, १९६-१९७, २१७ दे० पवनंजय और अंजना मिश्रगुणस्थान-तीसरा गुणस्थान । इसका अपर नाम सम्यग्मिथ्यादृक् Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy