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________________ मार्ग-माल्यांग पर उसने इसे सपत्नीक चम्पापुर के वन में छोड़ दिया था । चम्पापुर का राजा चन्द्रकीर्ति निस्सन्तान था। उसके मर जाने पर वहाँ मंत्रियों ने इसे अपना राजा बनाया था। मूलतः इसका नाम सिंहकेतु था किन्तु चम्पापुर को प्रजा इसे मृकण्डु का पुत्र जानकर इस नाम से पुकारती थी । मपु० ७०.७४-९० मार्ग-तालगत गान्धर्व का एक भेद । हपु० १९.१५१ मार्गणस्थान-जीवों के अन्वेषण के स्थान । ये चौदह होते हैं १. गति २. इन्द्रिय ३. काय ४. योग ५. वेद ६. कषाय ७. ज्ञान ८. संयम ९. दर्शन १०. लेश्या ११. भव्यत्व १२. सम्यक्त्व १३. संज्ञित्व और १४. आहारक । मपु० २४.९५-९६, हपु० २.१०७ ५८.३६-३७, वीवच० १६.५३-५६ माप्रर्गभावना-तीर्थकर नामकर्म के बन्ध की कारण सोलह भावनाओं में एक भावना । इसमें ज्ञान, तप, जिनेन्द्र की पूजा आदि के द्वारा धर्म का प्रकाश फैलाया जाता है । मपु० ६३.३२९, ३३१, हपु० ३४.१४७ मार्गवी-संगीत के मध्यमग्राम की पांचवीं मूर्छना । हपु० १९.१६३ मागं सम्यक्त्व-सम्यक्त्व का दूसरा भेद । यह परिग्रह-रहित निश्चल और पाणिपात्रत्व लक्षणवाले मोक्षमार्ग को सुनकर उसमें उत्पन्न श्रद्धा से होता है। मपु० ७४.४३९-४४२, वीवच० १९.१४४ मार्तण्डकुण्डल-विद्याधरों का राजा। यह नभस्तिलक नगर के राजा चन्द्रकुण्डल और रानी विमला का पुत्र था। यह आदित्यपुर के राजा विद्याधर विद्यामन्दर की पुत्री श्रीमाला के स्वयंवर में सम्मिलित हुआ था । पपु० ६.३५७-३५९, ३८४-३८८ मार्तण्डाभपुर-विद्याधरों का एक नगर । यहाँ का राजा अपने मंत्रियों सहित रावण की सहायता के लिए गया था। पपु० ५५.८७-८८. मार्दव-धर्मध्यान की दस भावनाओं में दूसरी भावना । इसमें मान मोचन के लिए मन, वचन और काय की कोमलता से मार्दव भाव रखा जाता है । मनुष्य पर्याय की प्राप्ति इसका फल है। मपु० ३६.१५७-१५८, पपु० १४.३९, पापु० २३.६४, वीवच० ६.६ मालती-एक लता । मरुदेवी ने सोलह स्वप्नों में से एक स्वप्न में अन्य फूलों और इस लता के फूलों से निर्मित दो मालाएं देखी थीं। पपु० ३.१२८ मालव-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक देश । भरतेश का सेनापति ससैन्य यहाँ आया था। तीर्थकर वृषभदेव और महावीर ने यहाँ विहार किया था । मपु० १६.१५३, २५.२८७-२८८, २९.४७, पपु० १०१.८१, पापु० १.१३३ माली-(१) लंका का राक्षसवंशी एक नृप। यह अलंकारपुर के राजा सुकेश और रानी इन्द्राणी का ज्येष्ठ पुत्र तथा सुमाली और माल्यवान् का बड़ा भाई था। इसके पूर्वज लंका के राजा थे किन्तु वे क्रूर और बलवान् निर्घात विद्याधर के भय से अलंकारपुर में रहने लगे थे। इसने पिता के समक्ष चोटी खोलकर पूर्वजों का राज्य वापिस लेने की प्रतिज्ञा की थी। इस कार्य के लिए अपने भाइयों को साथ लेकर यह लंका गया था। वहाँ निर्घात को युद्ध में मारकर इसने लंका पर जैन पुराणकोश : २९७ विजय प्राप्त की थी। इसके माता-पिता और भाई भी लंका पहुँच गये थे। इसके पश्चात् इसने हेमपुर के राजा हेम विद्याधर तथा रानी भोगवती की पुत्री चन्द्रवती को विवाहा था। यह लंका का राजा होकर भी सभी विद्याधरों पर शासन करता था। इसने मेरु पर्वत तथा नन्दन वन में जिनमन्दिर बनवाये थे और किमिच्छक दान दिया था। अन्त में यह सहस्रार के पुत्र लोकरक्षक इन्द्र विद्याधर द्वारा युद्ध में चक्र से मारा गया । पपु० ६.५३०-५६५, ७.३३-३४, ५३-५४, ८७-८८ (२) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३५ माल्य-(१) भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतक्षेत्र के पश्चिम आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७१ (२) विजया की उत्तरश्रेणी का चवालीसा नगर । हपु० २२.९० माल्यगिरि-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक पर्वत । दिग्विजय के समय भरतेश की सेना यहाँ आयी थी। मपु० २९.५६ ।। माल्यवती-भरतक्षेत्र के पूर्वी आर्यखण्ड की एक नदी। इसके तटवर्ती वन में जंगली हाथी विचरते थे । भरतेश की सेना इस नदी को पार कर यमुना की ओर गयी थी । मपु० २९.५९ माल्यवत्कूट-माल्यवान् पर्वत का दूसरा कूट । हपु० ५.२१९ माल्यवान्-(१) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३७ (२) यदुवंशी राजा अन्धकवृष्णि का पौत्र और हिमवान् का पुत्र । यह तीर्थकर नेमिनाथ का चचेरा भाई था । हपु० ४८.४७ (३) मानुषोत्तर पर्वत के भीतर विद्यमान सोलह सरोवरों में सोलहवाँ सरोवर। यह नील पर्वत से साढ़े पांच सौ योजन दूर नदी के मध्य में है । मपु० ६३.१९७-१९९, हपु० ५.१९४ (४) अनादि निधन, वैडूर्यमणिमय एक वक्षार पर्वत । यह मेरु को पूर्वोत्तर दिशा में स्थित है। इस पर्वत के नौ कूट है। उनके नाम है-सिद्धकूट, माल्यवत्कूट, सागरकूट, रजतकूट, पूर्णभद्र कूट, सीताकूट और हरिसहकूट । मपु० ६३.२०४, हपु० ५.२११, २१९-२२० (५) अलंकारपुर के राजा सुकेश और रानी इन्द्राणी का तीसरा पुत्र, माली और सुमाली का अनुज । इसका विवाह कनकाभनगर के राजा कनक और रानी कनकधी की पुत्री कनकावली से हुआ था। इसकी एक हजार से कुछ अधिक रानियाँ थीं। श्रीमाली इसका पुत्र था। यह रावण का सामन्त था। रावण के वध से दुखी होने पर इसे विभीषण ने सान्त्वना दी थी। पपु० ६.५३०-५३१, ५६७-५६८, १२.२१२, ८०.३२-३३ (६) एक ह्रद । इस हद के निवासी एक देव का नाम भी माल्यवान् ही था । मपु० ६३.२०१ माल्यांग-माल्यांग जाति के कल्पवृक्ष । इनका उत्तरकुरु भोगभूमि में सदैव सद्भाव रहता है । कुरुभूमि में ये अवसपिणी के तीसरे काल तक रहते हैं। ये वृक्ष सब ऋतुओं के फूलों से युक्त होते हैं। यहाँ के निवासी इनकी अनेक प्रकार की मालाएँ और कर्णफूल आदि कर्णा ३८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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