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________________ २९२ : जैन पुराणकोश महीपद्म-महेन्द्रपुर (५) सूर्योदय नगर का राजा एक विद्याधर । शक्रधनु की पुत्री पर रहने लगा था। इसके रहने से नगर का नाम महेन्द्रगिरि हो जयचन्द्रा इसके फूफा को लड़की थी। भूमिगोचरी चक्रवर्ती हरिषेण गया था। इसकी हृदयवेगा रानी से इसके अरिंदम आदि सौ पुत्र तथा का विवाह जयचन्द्रा से होने पर इसने हरिषेण से युद्ध किया था तथा अंजना पुत्री हुई थीं। इसने पुत्री का विवाह आदित्यपुर के राजा भयग्रस्त होकर यह युद्ध से भाग गया था। पपु० ८.३६२-३६३, प्रह्लाद के पुत्र पवनंजय के साथ किया था। इसने सहायतार्थ रावण ३७३-३८८ का पत्र आने पर और पवनंजय का विशेष आग्रह देखकर उसे रावण महोपद्म-पुष्कराध द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरी- की सहायता के लिए भेजा था। पवनंजय की पत्नी को रानी केतुमती किणी नगरी का नृप । इसने मुनि भूतहित से उपदेश सुनकर पुत्र द्वारा दोष लगाकर घर से निकाल दिये जाने पर पत्नी के न मिलने धनद को राज्य सौंपा और अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ले ली थी। से पवनंजय दुःखी होकर वन-वन भटका। पवनंजय को ढढ़ने यह अन्त में यह तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध कर प्राणत स्वर्ग का इन्द्र भी घर से निकल गया था । वन में पवनंजय को देखकर यह बहुत हुआ। मपु० ५५.२-३, १३-१४, १८-१९, २२ प्रसन्न हुआ था और प्रिया को पाये बिना पवनंज की भोजन न करने महीपाल-(१) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३१ की प्रतिज्ञा सुनकर बहुत दुःखी भी हुआ था। अन्त में अंजना और (२) भरतक्षेत्र के महीपाल नगर का राजा। यह तीर्थकर पार्श्वनाथ पवनंजय का मिलन हो जाने से यह और इसकी पत्नी दोनों हर्ष का नाना था । यह अपनी रानी के वियोग से साधु होकर पंचाग्नि विभोरहो गये थे। पपु० १५.११-१६, ८९-९०, १६.७९-८१, तप करने लगा था । पार्श्वनाथ के नमन न करने से क्षुब्ध होकर इसने १७.२१, १८.७२, १०२-१०९, १२७ पार्श्वनाथ को अवज्ञा की थी। पार्श्वनाथ के रोकने पर भी इसने (९) राम का पक्षधर एक विद्याधर राजा। पपु० ५८.३ बुझती हुई अग्नि में लकड़ी डालने के लिए कुल्हाड़ी से उसे काट ही __ महेन्द्रका-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड को एक नदी । भरतेश का सेनापति डाला था। इससे लकड़ी के भीतर रहनेवाला नाग-युगल क्षत-विक्षत इस नदी को पार कर ससैन्य शुष्क नदी की ओर गया था। मपु० हो गया था । पार्श्वनाथ को अपना तिरस्कर्ता जानकर यह पार्श्वनाथ २९.८४ पर क्रोध करते हुए सशल्य मरा और ज्योतिषी देव शम्बर हुआ । मपु० महेन्द्रकेतु-राम का पक्षधर एक सामन्त विद्याधर । यह पराक्रमी था। ७३.९६-१०३, ११७-११८ पपु० ५४.३८ महीपालपुर-भरतक्षेत्र का एक नगर । तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के नाना । महेन्द्रगिरि-(१) भरतक्षेत्र के अन्त में महासागर के निकट आग्नेय राजा महीपाल यहीं रहते थे। मपु० ७३.७६ दिशावर्ती दन्ती पर्वत । राजा महेन्द्र द्वारा इस पर्वत पर महेन्द्रपुर महीपुर-गान्धार देश का एक नगर । इसी नगर के राजा सत्यक ने नगर बसाये जाने तथा वहाँ निवास करने से दन्ती पर्वत इस नाम से चेटक से उसकी ज्येष्ठा पुत्री की याचना की थी। मपु० ७५.१३ कहा जाने लगा । पपु०१५.११-१४ महीयस्-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४३ (२) राजा वसुदेव और रानी गन्धर्वसेना के तीन पुत्रों में तीसरा महीयित-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४ पुत्र । यह वायुवेग और अमितगति का छोटा भाई था।हपु० ४८.५५ महेज्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५८ महेन्द्रजित्-आदित्यवंशी राजा इन्द्रद्युम्न का पुत्र और प्रभु का जनक । महेन्द्र-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० __पपु० ५.७-८, नपु० १३.१०-११ २५.१४८ महेन्द्रवत्त-(१) वृषभदेव तीर्थङ्कर के बासठवें गणधर । हपु० १२.६६ (२) कुण्डलगिरि का उत्तरदिशावर्ती एक कूट । यहाँ पाण्डुक देव (२) राजा अकम्पन का कंचुको । सुलोचना को स्वयंवर मण्डप में रहता है । हपु० ५.६९४ यही लाया था। मपु० ४३.२७७-२७८, पापु० ३.४८ (३) विजया पर्वत का उत्तरश्रेणी का अड़तालीसवाँ नगर । हपु० (३) सोमखेट नगर का राजा। इसने तीर्थकर सुपार्श्वनाथ को २२.९० पड़गाहकर आहार दिया था। मपु० ५३.४३ (४) राजा अचल का ज्येष्ठ पुत्र । हपु० ४८.४९ (४) विजयनगर का राजा । यह मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ (५) भरतक्षेत्र के चन्दनपुर नगर का राजा। इसकी रानी तथा स्वर्ग से चयकर हरिषेण चक्रवर्ती हुआ । पपु० २०.१८५-१८६ अनुन्धरी तथा पुत्री कनकमाला थी। मपु० ७१.४०५-४०६, हपु० महेन्द्रनगर-(१) राजा महेन्द्र द्वारा महेन्द्रगिरि पर बसाया गया नगर । ६०.८०-८१ अंजना का जन्म यहीं हुआ था। पपु० १५.१३-१६ दे० महेन्द्र-८ (६) एक पर्वत । चक्रवर्ती भरत का सेनापति इस पर्वत को लांघ- (२) एक नगर । चन्दनपुर नगर के राजा महेन्द्र की पुत्री कनककर विन्ध्याचल की ओर गया था। मपु० २९.८८ माला ने राजा हरिवाहन विद्याधर का इसी नगर में वरण किया था। (७) एक मुनि । ये अयोध्या के राजा अरिंजय के दीक्षागुरू थे। हपु० ६०.७८-८२ मपु० ७२.२७-२८ महेन्द्रपुर-विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी का पचपनवाँ नगर । मपु० (८) एक विद्याधर । यह नगर बसाकर भरतक्षेत्र के दन्ती पर्वत १९.८६-८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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