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________________ महावीर्य-महासूर्यप्रभ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६२ महावतपति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५७ महाशक्ति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १५२ महाशनिरव-रावण का व्याघ्र-रथ पर आसीन एक सामन्त । पपु० ५७.४९ महाशिरस्-कुण्डलगिरि के कनककूट का निवासी एक देव । हपु० २९० : जैन पुराणकोश एवं उनके फल का प्रमाण, नय और निक्षेप आदि द्वारा उपदेश किया था । अन्त में ये राजगृह नगर के निकट विपुलाचल पर्वत पर स्थिर हुए। वीरवर्धमानचरित के अनुसार इन्होंने छः दिन कम तीस वर्ष तक विहार करने के बाद चम्पानगरी के उद्यान में दिव्यध्वनि और योगनिरोध कर प्रतिमायोग धारण किया तथा कार्तिक मास की अमावस्या के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते प्रभातवेला में उनका निर्वाण हुआ। महापुराण और पद्मपुराण के अनुसार निर्वाण स्थली पावापुर का मनोहर वन है। दूरवर्ती पैंतीसवें पूर्वभव में ये पुरुरवा भील थे। चौतीसवें पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग के देव, पश्चात् तेंतीसवें में मरीचि, बत्तीसवें में ब्रह्म स्वर्ग के देव, इकतीसवें में जटिल ब्राह्मण, तीसवें में सौधर्म स्वर्ग में देव, उन्तीसवें में पुण्यमित्र नामक ब्राह्मण, अट्ठाइसवें में सौधर्म स्वर्ग के देव, सत्ताइसवें में अग्निसह ब्राह्मण, छब्बीसवें में सनत्कुमार स्वर्ग में देव, पच्चीसवें में अग्निमित्र ब्राह्मण, चौबीसवें में माहेन्द्र स्वर्ग में देव, तेईसवें में भरद्वाज नामक ब्राह्मण, बाईसवें में माहेन्द्र स्वर्ग में देव, इक्कीसवें में निगोदादि अधोगतियों के जीव, बीसवें में त्रस, उन्नीसवें में स्थावर, अठारहवें में स्थावर ब्राह्मण, सत्रहवें में माहेन्द्र स्वर्ग में देव, सोलहवें में विश्वनन्दी ब्राह्मण, पन्द्रहवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौदहवें में त्रिपृष्ठ चक्रवर्ती, तेरहवें में सातवें नरक के नारकी, बारहवें में सिंह, ग्यारहवें में प्रथम नरक के नारकी, दसवें में सिंह, नौवें में सिंहकेतु देव, आठवें में कनकोज्ज्वल विद्याधर, सातवें में सातवें स्वर्ग में देव, छठे में हरिषेण राजपुत्र, पांचवें में महाशुक्र स्वर्ग में देव, चौथे में प्रियमित्र राजकुमार, तीसरे में सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ देव, दूसरे में मन्द राजपुत्र और प्रथम पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग के अहमिन्द्र हुए थे। मपु० ७४.१४-१६, २०-२२, ५१-८७, ११८, १२२, १६७, १६९-१७१, १९३, २१९, २२१-२२२, २२९, २३२, २३४, २३७, २४१, २४३, २४६, २५१-२६२, २६८, २७१-२७६, २८२-३५४, ३६६-३८५, ७६.५०९, ५३४-५४३, पपु० २.७६, २०.६१-६९, ९०, ११५, १२२, हपु० २.१८-३३, ५०-६४, ३.३-७, ४१-५०, वीवच० १.४, ७, ७.२२, ८.५९-६१, ७९, ९.८९, १०.१६-३७, १२.४१-४७, ५९-७२, ८७-८८, ९९-१०३, १३७-१३८, १३.४-२८,८१, ९११०१, १३१-१३२, १५.७८-७९, ९९, १९.२०६-२१५, २२० २२१, २३२-२३३ महावीर्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु २५.१५२ महावेगा-अर्ककीति के पुत्र अमिततेज को प्राप्त एक विद्या । मपु० ६२.३९७ 'महादेवन-तीसरी नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार सम्बन्धी तप्त इन्द्रक बिल की उत्तरदिशा का महानरक । हपु० ४.१५४ महावत-महाव्रतियों का एक आचार धर्म । इस व्रत में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूप से त्याग करके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का निरतिचार पूर्ण रूप से पालन किया जाता है। मपु० ३९.३-४, . पपु० ४.४८, हपु० २,११७-१२१, १८.४३ महाशील-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५६ महाशुक्र-(१) दसवाँ स्वर्ग । मपु० ५७.८२, ५९.२२६, पपु० १०५, १६८, हपु० ४.२५, ६.३७ (२) एक विमान । मपु० ५८.१३ (३) इस नाम के विमान में उत्पन्न इन्द्र । मपु० ५८.१३-१५ (४) जरासन्ध का एक पुत्र । हपु० ५२.३३ महाशुभस्तुति-अर्हन्तों की गुणराशि का यथार्थरूप से किया गया कीर्तन । वीवच० १९.९ महाशलपुर-विद्याधरों का एक नगर । यहाँ का राजा मंत्रियों सहित रावण की सहायतार्थ उसके पास आया था । पपु० ५५.८६ महाशोकध्वज-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३३ महाश्वसन-एक अस्त्र । श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के तीव्र वर्षाकारी संवर्तक ____ अस्त्र का इसी से तीव्र आंधी चलाकर निवारण किया था। हपु० ५२.५० महाश्वेता-दिति और अदिति देवियों द्वारा विद्याधर नमि और विनमि ___ को दिये गये सोलह विद्यानिकायों की एक विद्या । हपु० २२.९३ महासत्त्व-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५१ महासम्पत्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५२ महासर-धृतव्यास का पूर्वज कुरुवंशी एक नृप । इसे राजा धारण से राज्य प्राप्त हुआ था । हपु० ४५.२९ महासर्वतोभद्र-एक व्रत । इसमें सात भागवाला एक चौकोर प्रस्तार बनाकर एक से सात तक के अंक इस रीति से लिखे जाते है कि सब ओर से संख्या का जोड़ अट्ठाईस आ जाता है । इस प्रकार एक भाग के अट्ठाईस उपवास और सात पारणाओं के क्रम से सातों भागों के कुल एक सौ छियानवें उपवास और उनचास पारणाएँ की जाती हैं। इस महानत में दो सौ पैंतालीस दिन लगते है। हपु० ३४. ५७-५८ महासुव्रत-द्वितीय बलभद्र विजय के पूर्वजन्म का दीक्षा-गुरु। पपु० २०.२३४ महासूर्यप्रभ-सहस्रार स्वर्ग का एक देव। यह पूर्वभव में प्रियमित्र चक्रवर्ती था । वीवच० ५.३७-३९, ११७ दे० प्रियमित्र Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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