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________________ भोगभूमि-भोजक वृष्णि अवसर्पिणी के प्रथम सुषमा सुषमा काल में उत्तम भोगभूमि होती हैं । इस समय मनुष्यों की आयु तीन पल्य और शरीर की अवगाहना छ : हजार धनुष होती है । वे सौम्याकृति तथा आभूषणों से अलंकृत होते है ये तीन दिन के अन्तर से हरिवंशपुराण के अनुसार चार दिन के अन्तर से कल्पवृक्षों से प्राप्त बदरीफल के बराबर भोजन करते हैं । उन्हें कोई श्रम नहीं करना पड़ता। इनके न रोग होता है, न मलमूत्र आदि की बाधा । न मानसिक पीड़ा होती है, न पसीना ही आता है और न इनका असमय में मरण होता है। स्त्रियों की और आयु ऊँचाई पुरुषों के समान होती है । स्त्री-पुरुष दोनों जीवन पर्यन्त भोग भोगते हैं । भोग-सामग्री इन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है । इस समय मांग, तूर्याग, विभूषन, मत्स्यांग ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोज नांग, पात्रांग और वस्त्रांग जाति के दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं। जो विभिन्न सामग्री देते हैं । आयु के अन्त में पुरुष को जिलाई और स्त्री को छींक आती है और वे मरकर स्वर्ग जाते हैं। दूसरे सुषमा काल में मध्यम भोगभूमि रहती है। इस काल के मनुष्य देवों के समान कान्ति के धारी होते हैं । उनकी आयु दो पल्य की तथा शारीरिक ऊँचाई चार हजार धनुष होती है। ये दो दिन हरिवंशपुराण के अनुसार तीन दिन बाद कल्पवृक्ष से प्राप्त बहेड़े के बराबर आहार करते हैं। तीसरे सुषमा- दुःषमा काल में जघन्य भोगभूमि रहती है । इसमें मनुष्यों को आयु एक पल्य की तथा शरीर दो हज़ार धनुष ऊँचा और श्याम वर्ण का होता है। ये एक दिन के हरिवंशपुराण के अनुसार दो दिन के अन्तर से आँवले के बराबर भोजन करते हैं । यहाँ कर्मभूमिज मनुष्य और तियंच ही जन्मते हैं तथा मरकर वे पहले और दूसरे स्वर्ग में अथवा भवनवासी आदि तीन निकायों में उत्पन्न होते हैं । यहाँ की भूमि इन्द्रनील आदि नीलमणि, जात्यंदन आदि कृष्णमणि, पद्मराग आदि लालमणि हैमा आदि पीतमणि और मुक्ता आदि सफेद- मणियों से व्याप्त होती है तथा चार अंगुल प्रमाण तृणों से आच्छादित होती है तथा दूध, दही, घी, मधु, ईख से भरपूर होती है । यहाँ गर्भ से युगल रूप में उत्पन्न स्त्री-पुरुषों के सात दिन तो अँगूठा चूसने में बीतते है, पश्चात् सात दिन तक वे रेंगते हैं, फिर सात दिन लड़बड़ाते हुए चलते फिर सात दिन तक स्थिर गति से चलते पश्चात् सात दिन कला - अभ्यास में निपुणता प्राप्त करते और इसके पश्चात् सात दिन इनके यौवन में बीतते हैं। सातवें सप्ताह में इन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण करने की योग्यता हो जाती है । पुरुष-स्त्री को आर्या तथा स्त्री-पुरुष को आर्य कहती है । इस समय न ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते हैं और न असि मसि आदि षट्कर्म । सेव्य सेवक भी नहीं होते । मनुष्य विषयों में मध्यस्थ होते हैं । उनके न मित्र होते हैं न शत्रु । वे स्वभाव से अल्प कषायी होते हैं। आयु पूर्ण होने पर युगल रूप में ही मरते हैं । यहाँ के सिंह भी हिंसा नहीं करते । नदियों में मगरमच्छ नहीं होते । यहाँ न अधिक शीत पड़ती है न अधिक गर्मी । तीव्र वायु भी नहीं चलती । जम्बूद्वीप में छः भोगभूमियाँ होती है। उनके नाम है-हैमवत हरिवर्ष रम्यक हैरण्य 7 J ३४ Jain Education International जैन पुराणको २६५ वत्, देवकुरु तथा उत्तरकुरु । मपु० ३.२४ ५४, ९.१८३, ७६.४९८५००, पपु० ३.४०, ५१-६३ हपु० ७.६४-७८, ९२ ९४, १०२१०४ भोगमालिनी - माल्यवान् गजदन्त के रजतकूट पर रहनेवाली दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.२२७ भोगलक्ष्मी - भोग सम्पदा । यह विष वेल के समान होती है । मपु० १७.१५ भोगी (१)दन दन्त पर्वत के लोहिट पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी ह० ५.२२० (२) शिवंकरपुर के राजा अनिलवेग और उसकी कान्ता कान्तवती की पुत्री, हरिकेतु की बहिन । मपु० ४७.४९-५०, ६० (३) हेमपुर के राजा हेम विद्याधर की रानी और चन्द्रवती की जननी । पपु० ६.५६४-५६५ (४) माकन्दी नगरी के राजा द्रुपद की प्रिया और द्रौपदी की जननी । हपु० ४५.१२१, पापु० १५.४१-४२ भोगवर्द्धन - भरतक्षेत्र का एक नगर । यहाँ तारक प्रतिनारायण का जन्म हुआ था। मपु० ५८.९०-९१, हपु० ११.७० भोगिनी - ( १ ) एक विद्या। यह स्मरतरंगिणी शय्या पर सोये हुए मनुष्य को उसके इष्ट से मिला देती है। मंदादय को जीवन्धर से मिलाने के लिए गन्धर्वदत्ता ने इसी विद्या का प्रयोग किया था। मपु० ७५. ४३२-४३६ (२) पार्श्वनाथ की पारिथी देवी पद्मावती मपु० ७३.१ भोगोपभोगसंख्यान– त्रिविध गुणवतों में एक गुगव्रत इसमें भोग और उपभोग की वस्तुओं का परिमान किया जाता है। इन्द्रिय-विषयों को जीतने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। इसके पाँच अतिचार है१. सचिताहार २ चित्तसंबंधाहार ३ सचित्तमिषाहार ४. अभिवाहा ५. दुष्पवाहार इसका दूसरा नाम (भोगोपभोगपरिमाण) उपभोग - परिभोग परिमाणव्रत है । पपु० १४.१९८ हपु० ५८.१८२, वीवच० १८.५१ भोज - (१) वृषभदेव के समय का एक वंश । इस वंश के राजा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने से भोज कहलाते थे । मपु० १.६, ह ९.४४ (२) भोजवंशी एक राजा । यह सीता के स्वयंवर में आया था । पपु० २८.२२१ (३) कृष्ण के पक्ष का एक नृप । यह महारथी था । इसके रथ में लाल रंग के घोड़े जोते जाते थे । हपु० ५२.१५ भोजकवृष्टि मथुरा नगरी के राजा वीर और रानी पद्मावती का - पुत्र इसकी रानी का नाम सुमति था। इसके तीन पुत्र थेउप्रसेन, महासेन और देवसेन । गांधारी इसकी पुत्री थी। इसका अपर नाम भोजकवृष्णि था । हपु० १८.९-१०, पापु० ७.१४२ - १४५ भोजकवृष्णि - मथुरा के राजा सुवीर का पुत्र । हपु० १८.१०, १६ दे० भोजक वृष्टि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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