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________________ २१६ : जैन पुराणकोश पराल्य-परिहार पराख्य-वृषभदेव के चौरासी गणघरों में चौतीसवें गणधर । हपु० १२.६१ पराजयपुर-विद्याधरों का एक नगर । यहाँ का स्वामी मन्त्रियों सहित युद्ध में रावण की सहायतार्थ आया था। पपु० ५५.८७-८८ पराजित-धृतराष्ट्र तथा गान्धारी का इकसठवां पुत्र । पापु० ८.२०० परात्यपर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १८९ परात्मज्ञ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८९ पराम्भोषि-नारायण लक्ष्मण के पूर्वभव के दीक्षागुरु । पपु० २०.२१६ २१७ पराय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४९ परावगाढ़सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन का एक भेद । अपरनाम परमावगाढ़ सम्यक्त्व । मपु० ५४.२२९ दे० परमावगाढ़ सम्यक्त्व परादर्स-तालगत गान्धर्व के बाईस प्रकारों में एक प्रकार । हपु० १९ १५० परावर्तन-जीव का संसार में भ्रमण । यह भ्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पाँच प्रकार का होता है। वीवच० ११. २६-३२ पराशर-हस्तिनापुर नगर के कौरववंशी राजा शक्ति और उसकी रानी शतकी का पुत्र । यह मत्स्य कुल में उत्पन्न राजपुत्री सत्यवती से विवाहित हुआ था। महर्षि व्यास का यह पिता था। मपु. ७०.१०१-१०३ परिजा-भरतक्षेत्र की एक नदी । यहाँ भरतेष की सेना आयी थी। मपु० २९.६९ परिकर्म-(१) स्निग्ध पदार्थों का शोधन । पपु० २४.५१ (२) बारहवें दृष्टिवाद अंग का एक भेद । हपु० २.९५-९६ परिक्रम-नृत्य का पद-विक्षेप और चक्रण (फिरकी लगाना) मपु० १३. १७९, १८.२०० परिक्षोदपुर-विद्याधरों का एक नगर । यहाँ का नुप मंत्रियों सहित युद्ध में रावण की सहायतार्थ उसके निकट गया था। पपु० ५५.८७-८८ परिग्रह-चेतन और अचेतन रूप बाह्य सम्पत्ति में तथा रागादि रूप अन्तरंग विकार में ममताभाव रखना । यह बाह्य और आभ्यन्तर के के भेद से दो प्रकार का होता है। इसकी बहुलता नरक का कारण है । इससे चारों प्रकार का बन्ध होता है । परिग्रही मनुष्यों के चित्तविशुद्धि नहीं होती, जिससे धर्म की स्थिति उनमें नहीं हो पाती। इसकी आसक्ति से जीववध सुनिश्चित रूप से होता है और राग-द्वेष जन्मते है जिससे जीव सदैव संसार के दुःख पाता रहता है। मपु० ५.२३२, १०.२१-२३, १७.१९६, ५९.३५, पपु० २.१८०-१८२, हपु० ५८.१३३ परिग्रहत्यागप्रतिमा-श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में नवमो प्रतिमा। इसमें वस्त्र के अतिरिक्त अन्य समस्त परिग्रहों का मन, वचन अ काय से त्याग किया जाता है। इसे परिग्रह परिच्युति भी कहते है। मपु० १०.१६० वीवच० १८.६६ परिग्रहपरिमाणुव्रत-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, दासी-दास, पशु, आसन, शयन, वस्त्र और भाण्ड इन दस प्रकार के परिग्रहों का लोभरूप पाप के विनाशनार्थ किसी निश्चित संख्या में परिमाण करना । वीवच० १८.४५-४७ परिग्रहानन्द-रौद्रध्यान के चार भेदों में चौथा भेद । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों की रक्षा में आनन्द मानना । हपु० ५६.१९, २५-२६ परिणय-विवाह । यह प्रजा सन्तति का कारण है और मनुष्यों के गृहस्थ धर्म का प्रवेश द्वार है । मपु० १५.३०, २५.६२-६४ परिणामक्रिया-कालद्रव्य का कार्य। समस्त पदार्थों में अन्तरंग और बहिरंग निमित्तों से होनेवाला परत्व और अपरत्व रूप परिणमन परिणामक्रिया है । हपु० ७.५ ।। परिदेवन-असातावेदनीय कर्म का आस्रव । यह ऐसा विलाप है जिसे सुनकर श्रोता भी दयार्द्र हो जाता है । हपु० ५८.९३ परिभोग-आसन आदि वे वस्तुएँ जिनका बार-बार भोग किया जाता है। हपु० ५८.१५५ परिनिर्वाण-एक व्रत । इसकी साधना के लिए प्रतिवर्ष भादों सुदी सप्तमो को उपवास किया जाता है। इससे अनन्त सुख रूप फल प्राप्त होता है। हपु० ३४.१२७ परिनिर्वाणकल्याणपूजा-तीर्थकरों के अन्तिम शरीर से सम्बन्ध रखनेवाली पूजा । इस पूजा को चारों निकायों के देव अपने-अपने इन्द्रों के नेतृत्व में करते हैं । इस पूजा के पश्चात् मोक्षगामी जीवों के शरीर क्षण भर में बिजली के समान आकाश को दैदीप्यमान करते हुए विलीन हो जाते हैं । हपु० ६५.११-१२ परिनिष्क्रमण-संसार से विरक्ति होने पर इन्द्र और लौकान्तिक देवों के द्वारा तीर्थंकरों का अभिषेक और अलंकरण । इसके पश्चात् तीर्थकर राज्य करके दीक्षा के लिए नगर से निष्क्रमण करते हैं । मपु० १७.४६-४७, ७०-७५, ९१, ९९, १३० परिदृढ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४१ परिव्राजक-(१) काषायवस्त्रधारी साधु । ऐसा साधु संसार के कारण स्वरूप परिग्रह को त्याग कर मुक्तिमार्ग का पथिक हो जाता है । पपु० ३.२९३, १०९.८६, हपु० २१.१३४ (२) एक मत । इसे मरीचि ने चलाया था । पपु० ८५.४४ परिषद्-इन्द्र की सभा । यह तीन प्रकार की होती है-अन्तःपरिषद्, मध्यम परिषद् और बाह्य परिषद् । इनमें अन्तःपरिषद् में एक सौ पच्चीस देव, मध्यम परिषद् में दो सौ पचास देव और बाह्य परिषद् में पाँच सौ देव होते हैं । मपु० १०.१९१ परिहार–प्रायश्चित के नौ भेदों में आठवाँ भेद । पक्ष, मास आदि एक निश्चित समय के लिए दोषी मुनि को संघ से दूर कर देना परिहार कहलाता है । हपु० ६४.२८, ३७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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