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________________ २१२: जैन पुराणकोश पवमनिषि-पद्मरान पद्मनिधि-एक निधि । यह एक प्रकार की उद्योग-शाला थी। इसमें की रचना। तीर्थङ्कर नेमिनाथ के विहार के समय यह देवों द्वारा रेशमी और सूती वस्त्र बनाये जाते थे । मपु० ३७.७९ चरणों के नीचे रखी गयी थी। हपु० ५९.७, १०, ३० पद्मनिभ-अश्वध्वज का पुत्र । पद्ममाली का पिता और विद्याधर दृढ़- पद्मयोनि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । रथ का वंशज था । पपु० ५.४७-५६ हपु० २५.१३४ पद्मपुगव-उत्सर्पिणी काल के दुःषमा नामक काल में होने वाले सोलह पद्मरथ-(१) कुण्डपुर नगर का राजा । वसुदेव ने इस राजा की पुत्री कुलकरों में पन्द्रहवें कुलकर। मपु० ७६.४६६ हरिवंशपुराण के को माल्य कौशल (माला गूंथने की कुशलता) से पराजित कर विवाहा अनुसार ये चौदहवें और अन्तिम कुलकर होंगे। हपु०६०.५५३-५५७ था। हपु० ३१.३ पद्मप्रभ-(१) उत्सर्पिणी काल के दुःषमा काल में होनेवाले सोलह (२) पद्ममाली का पुत्र और मिहयान का पिता। यह विद्याधर कुलकरों में बारहवें कुलकर । मपु० ७६.४६५ हरिवंशपुराण के दृढ़रथ का वंशज था। पपु० ५.४७.५६ अनुसार ये ग्यारहवें कुलकर होंगे। हपु० ६०.५५७ (३) तीर्थङ्कर धर्मनाथ के पूर्व जन्म का नाम । पपु० २०.२१-२४ (२) अवसर्पिणी काल के चतुर्थ दुःषमा-सुषमा काल में उत्पन्न (४) अक्षौहिणी सेना से युक्त सिंहल देश का राजा । इसने कृष्णशलाकापुरुष और छठे तीर्थकर । मपु० २.१२९, १३४, हपु० १.८, जरासन्ध युद्ध में कृष्ण का साथ दिया था। हपु० ५०.७१ २२-३२, वीवच० १८.८७,१०१-१०५ कौशाम्बी नगरी के इक्ष्वाकु (५) पाँच सौ धनुष की ऊँची काया से युक्त एक चक्रवर्ती राजा। वंशी काश्यपगोत्री राजा धरण के यहाँ उनकी रानी सुसीमा के माघ इसने सीमन्धर भगवान् से प्रद्युम्न का परिचय प्राप्त किया था। कृष्णा षष्ठी तिथि की प्रभात बेला में ये गर्भ में आये थे तथा कार्तिक हपु० ४३.९२-९७ कृष्णा त्रयोदशी के दिन त्वष्ट्रयोग में इन्होंने जन्म लिया । तीस लाख (६) विद्याधरों की नगरी मेघपुर का स्वामी । मपु० ६२.६६, पूर्व प्रमाण इनकी आयु थी और दो सौ पचास धनुष ऊँचा शरीर पापु० ४.२६ था । आयु का एक चौथाई भाग बीत जाने पर इन्हें एकछत्र राज्य (७) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु से उत्तर की ओर विद्यमान प्राप्त हुआ था। सोलह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की आयु शेष रहने अरिष्टनगरी के राजा । स्वयंप्रभ जिनेन्द्र से धर्म श्रवण करके इन्होंने पर ये काम-भोगों से विरक्त हुए और निवृत्ति नामा शिविका पर। धनरथ नामक पुत्र को राज्य दे दिया और संयम धारण कर लिया । आरूढ़ होकर मनोहर वन में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को अपराह्न ये अंगों के वेत्ता हुए । इन्होंने तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया । अन्त वेला और चित्रा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। में सल्लेखना पूर्वक मरकर ये अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में दीक्षा लेते ही इन्हें मनःपर्ययज्ञान हो गया था। वर्धमान नगर के इन्द्र हुए। यहाँ से च्युत होकर ये अनन्तनाथ तीर्थकर हुए। मपु० राजा सोमदत्त के यहाँ इनकी प्रथम पारणा हुई थी। ये छद्मस्थ ६०.२-२२ अवस्था में छः मास तक मौन रहे। इसके पश्चात् घातिया कर्मों का (८) कुरुवंशी का एक राजा । यह सुभौम के बाद हुआ था । हपु० नाश करके इन्होंने चैत्र शुक्ल में पौर्णमासी को मध्याह्न वेला और ४५.२४ चित्रा नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया। इनके वजचामर आदि एक (९) हस्तिनापुर के राजा मेघरथ और उसकी रानी पद्मावती का सौ दस गणधर थे। तीन लाख तीस हजार मुनि और चार लाख पुत्र । यह विष्णुकुमार का बड़ा भाई था। पिता तथा भाई के बीस हजार आर्यिकाएँ इनके साथ थीं । सम्मेदगिरि पर एक मास का दीक्षित हो जाने पर इसने राज्य किया। राजा सिंहबल को पकड़ योग धारण करके ये एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग में स्थिर लाने से प्रसन्न होकर बलि आदि मन्त्रियों को इसने ही इच्छित वर हुए और फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन अपराह्न वेला और चित्रा के रूप में सात दिन का राज्य दिया था। राज्य पाकर बलि आदि नक्षत्र में समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान से कर्म नष्ट करके मन्त्रियों ने अकम्पनाचार्य आदि मुनियों पर घोर उपसर्ग किया था। इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। मपु० ५२.१८-६८, पपु० २०.४२, ६१, इस उपसर्ग का निराकरण इसके छोटे भाई मुनि विष्णुकुमार ने ८४, ११३, ११९ इसके पूर्व ये धातकीखण्ड के पूर्व विदेह में वत्स किया था। मपु० ७०.२७४-२९८, हपु० २०.१४-२६ देश की सुसीमा नगरी के अपराजित नामक राजा थे। ये राजा पद्मरागमय-मेरु पर्वत की छः पृथ्वीकाय परिधियों में एक परिधि । सीमन्धर के पुत्र थे। आयु के अन्त में समाधिमरण के द्वारा शरीर हपु० ५.३०५ छोड़कर इन्होंने वेयक के प्रीतिकर विमान में अहमिन्द्र पद पाया ___पमरागा-किष्किन्धपुर के राजा सुग्रीव और उसकी भार्या तारा की था । यहाँ से च्युत होकर ये इस नाम के छठे तीर्थङ्कर हुए। मपु० पुत्री । इसका विवाह हनुमान के साथ हुआ था। पपु० १९.१०७५२.२-३, १२-१४, पपु० २०.२६-३५, हपु० ६०.१५२ १२५ 'पद्ममाल-कुरुवंश का एक राजा। सुभौम इसके बाद हुआ था। हपु० पदमराज-उत्सर्पिणी काल में होनेवाले तेरहवें कुलकर। मपु० ७६. ४५.२४ ४६६ हरिवंश पुराण के अनुसार ये बारहवें कुलकर होंगे । हपु० ६०. पड्मयान-पद्मरागमणियों से निर्मित एक योजन विस्तृत सहस्रदल कमल ५५४-५५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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