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________________ २०६ : जैन पुराणकोश नेकधर्मकृत्-त्यत्रोष इससे वे राजीमती के साथ विवाह न करके विरक्त हो गये और बारात लौट गयी । लौकान्तिक देवों ने आकर इनके वैराग्य की स्तुति की और दीक्षाकल्याणक का उत्सव मनाया। इसके पश्चात् ये देवकुरु नामक पालकी पर बैठकर सहस्राम्रवन गये । वहाँ श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सायंकाल कौमार्यकाल के तीन सौ वर्ष बीत जाने पर एक हजार राजाओं के साथ संयमी हुए। इसी समय इन्हें मनः पर्ययज्ञान भी हो गया। राजीमति भी विरक्त होकर इनके पीछे-पीछे तपश्चरण के लिए चली आयीं। पारणा के दिन राजा वरदत्त ने इन्हें नवधा-भक्ति पूर्वक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तपस्या करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन बीत जाने पर ये रैवतक पर्वत पर बेला का नियम लेकर महावेणु (बड़े बाँस) वृक्ष के नीचे नीचे विराजमान हो गये। वहाँ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रातःकाल के समय इन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । देवों ने केवलज्ञान-कल्याणक मनाया। इनके समवसरण में वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, चार सौ पूर्व श्रुतविज्ञ, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक, पन्द्रह सौ तीन ज्ञान के धारी, इतने ही केवली, ग्यारह सौ । विक्रियाऋद्धिधारी, नौ सौ मनःपर्ययज्ञानी और आठ वादी इस प्रकार कुल अठारह हजार मुनि थे। यक्षी, राजीमती, कात्यायनी आदि। चालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देवी-देवियाँ और संख्यात तिर्यश्च थे। मपु० ७१.२७-५१, १३४-१८७, पापु० २२.३७-६६ बलदेव द्वारा यह पूछे जाने पर कि कृष्ण का निष्कण्टक राज्य कब तक चलेगा? उत्तर में इन्होंने कहा था कि बारह वर्ष बाद मदिरा का निमित्त पाकर द्वीपायन के द्वारा द्वारिका जलकर नष्ट हो जावेगी । जरत्कुमार के बाण द्वारा कृष्ण की मृत्यु होगी । कृष्ण आगामी तीर्थङ्कर होंगे। मपु० ७२.१७८-१८२, पापु० २२.८०-८३ इन्होंने सुराष्ट्र, मत्स्य, लाट, शूरसेन, पटच्चर, कुरुजांगल पांचाल, कुशाग्र, मगध, अंजन, अंग, वंग तथा कलिंग आदि देशों में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दिया। हपु० ५९. ११०-१११ इस प्रकार इन्होंने छः सौ निन्यानवें वर्ष नौ मास चार दिन विहार करने के पश्चात् पाँच सौ तैतीस मुनियों के साथ एक मास तक योग-निरोधकर आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के आरम्भ में ही अघातिया कर्म विनाश करके मोक्ष प्राप्त किया । इन्द्र और देवों ने सभक्ति विधिपूर्वक इनके इस पंचम कल्याणक का उत्सव किया। मपु० ७२.२७२-२७४, पापु० २५. १४७-१५१ ये छठे पूर्व भव में पुष्कराध द्वीप के गन्धिल देश में विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में सूर्यप्रभ नगर के राजा सूर्यप्रभ के पुत्र चिन्तागति, पाँचवें पूर्वभव में चौथे स्वर्ग में सामानिक देव, चौथे पूर्वभव में सुगन्धिला देश के सिंहपुर नगर के राजा अहंदास के पुत्र अपराजित, तीसरे पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में इन्द्र, दूसरे पूर्वभव में हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र के पुत्र सुप्रतिष्ठ और प्रथम पूर्वभव में जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए थे। मपु० ७०.२६-२८, ३६-३७, ४१, ५०-५१, ५९ नेकधर्मकृत्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १८० नैकरूप-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८० नैकात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८० नेगम-(१) एक देव । इसने शुद्ध भावों से दर्भासन पर बैठकर अष्टोपवासपूर्वक मंत्र का सविधि जाप करते हुए कृष्ण से कहा था कि वह घोड़े के रूप में आयेगा तब वे उस पर सवार होकर समुद्र के भीतर बारह योजन तक चले जावें, वहाँ सुन्दर नगर बन जावेगा। कृष्ण इसकी सहायता से समुद्र में पहुँच गये थे। वहीं पर कुबेर ने इनके लिए द्वारावती नगरी की रचना की थी। मपु० ७१.१९-२८ (२) व्यापारी । ये विलास-वैभव सम्बन्धी वस्तुओं को बेचते थे। मपु०१६.२४७ नेगमनय-सात नयों में प्रथम नय । यह अनिष्पन्न पदार्थ के संकल्प मात्र को विषय करता है । यह तीन प्रकार का होता है, भूत नैगम, भावी नैगम और वर्तमान नैगम । हपु० ५८.४१-४३ नैगमषं-एक देव । इन्द्र की आज्ञा से इसी ने देवकी के तीन बार में उत्पन्न हुए युगल-पुत्रों को भद्रिलपुर नगर में अलका नामक वैश्यपत्नी के पास तथा अलका के मृत युगल-पुत्रों को देवकी के पास स्थानान्तरित किये थे। मपु० ७०.३८४-३८६ मैरात्म्यवाद-बौद्धों का शून्यवाद । इसके अनुसार जगत् शून्यरूप है । महाबल के मन्त्री शतमति ने इसका प्रतिपादन किया था और उसके महामन्त्री स्वयंयुद्ध ने इस मत का खण्डन करके आत्मा की सत्ता सिद्ध की थी। मपु० ५.४५-४८, ७४-८१ नैषध-भरतक्षेत्र के विन्ध्याचल पर्वत पर स्थित एक देश । हपु० ११.७३ नैःषङ्गयभावना-पंचेन्द्रिय सम्बन्धी सचित्र और अचित्र विषयों में अनासक्ति । ये दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यन्तर । मपु० २०.१६५ नैस्सl-चक्रवर्ती की नौ निधियों में एक निधि । इससे शय्या, आसन तथा मकान मिलते है । गृहोपयोगी बर्तन भी इससे मिल जाते हैं। मपु० ३७.७३-७८, हपु० ११.११८ नोकर्म-कर्म के उदय से होनेवाला शरीररूप पुद्गल परिणाम । यह परिणाम तीन प्रकार का होता है-औदारिक, वैक्रियिक और आहा रह । मपु० ४२.९१ नोकषाय-किंचित् कषाय । हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद ये नोकषाय हैं। मपु० २०.२४५ नोदन-धान्यग्राम का एक ब्राह्मण । भूख की बाधा के कारण इसने अपनी पत्नी अभिमाना का परित्याग कर दिया था। पपु०८०. १५९-१६१ न्यग्रोध-वटवृक्ष । वृषभदेव को केवलज्ञान इसी वृक्ष के नीचे हुआ था। उस समय देवों ने वृषभदेव की इसी वृक्ष के नीचे पूजा की थी। उसी के फलस्वरूप आज भी वटवृक्ष पूजा जाता है । पपु० ११. २९२-२९३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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