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________________ २०२ : जैन पुराणकोश निर्जरानुबेक्षा-निर्वेद तप के द्वारा पूर्वोपाजित कर्मों का क्षय करना अविपाक-निर्जरा है। मपु० १.८, वीवच० ११.८१-८७ निर्जरानुप्रेक्षा-बारह भावनाओं में नौवीं भावना । इसमें कर्मों की निर्जरा किस प्रकार से हो इसका चिन्तन किया जाता है। मपु० ११.१०५-१०९, पपु० १४.२३८-२३९, पापु० २५.१०५-१०७, वीवच० ११.८१-८७ दे० निर्जरा निन्द-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३८ निर्धू तागा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १३९ निर्नामक-हस्तिनापुर के राजा गंगदेव और रानी नन्दयशा का सातवाँ पुत्र । रानी ने इसे उत्पन्न होते हो त्याग दिया था। रेवती धाय के द्वारा इसका पालन-पोषण हुआ। इसी नगर के एक सेठ का पुत्र शंख इसका मित्र था। शंख एवं अन्य राजकुमारों के साथ इसे भोजन करते हुए देखकर इसकी माँ ने इसे लात मारकर अपमानित किया। इस अपमान से दुःखी होकर शंख के साथ वह वन चला गया । पूर्वभव में रसोइया की पर्याय में इसने सुधर्म मुनि को मारा था। यक्ष लिक की पर्याय में इसने सर्पिणी को सताया था। यह सर्पिणी ही इस पर्याय में नन्दयशा हुई थी। इसी कारण यह अपनी माँ के द्वेष का कारण बना। अपने पूर्वभव को द्रुमषेण मुनि से ज्ञात कर इसने सिंह-निष्क्रीडित नामक कठिन तप किया तथा आगामी भव में नारायण होने का निदान बाँधा। अन्त में मरकर यह कंस का शत्रु कृष्ण हुआ। मपु० ७१.२९८, हपु० ३३.१४१-१६६ निर्नामा-विदेहक्षेत्र में गन्धिल देश के पाटली ग्राम में उत्पन्न वैश्य . नागदत्त और उसकी स्त्री सुमति की छोटी पुत्री । यह वज्रजंघ की पत्नी श्रीमती के पूर्वभव का जीव थी। मपु० ६.१२६-१३० निनिमेष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३९ निर्मव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३८ निर्मल-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८४ (२) वृषभदेव के एक गणधर । मपु० ४३.६० (३) आगामी सोलहवें तीर्थंकर । मपु० ७६.४७९ निर्मोह-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३८ निर्लेप-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२८ निर्बज्ञशावला-दिति और अदिति द्वारा नमि और विनमि विद्याधरों को प्रदत्त सोलह निकायों को विद्याओं में से एक विद्या । हपु० २२.६३ निर्वर्तना-अजीवाधिकरण आस्रव का एक भेद । इसके दो भेद है मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना। इनमें शरीर, वचन, मन तथा श्वासोच्छ्वास आदि की रचना मूलगुण निर्वर्तना है और काष्ठ, पाषाण, मिट्टी आदि से चित्र आदि का बनाना उत्तरगुण निर्वर्तना है। हपु० ५८.८६-८७ निर्वाण-(१) मोक्ष । समस्त कर्मों के क्षय से प्राप्य, शाश्वत सुख । ' मपु० ७२.२७०, हपु० १.१२५, वीवच० ५.७ (२) प्रथम अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में ग्यारहवीं वस्तु । हपु० १०.७७-८०, दे० अग्रायणीयपूर्व निर्वाणकल्याणक-तीथंकरों का निर्वाण-महोत्सव । चारों निकायों के देवेन्द्र अपने-अपने चिह्नों से तीर्थंकरों का निर्वाण ज्ञात करके अपने परिवार के साथ आते हैं और उनकी सोत्साह पूजा करते हैं। तीर्थंकरों की देह को निर्वाण का साधक मानकर उसे पालकी में विराजमान करते हैं और सुगन्धित द्रव्यों से पूजकर उसे नमस्कार करते है। इसके पश्चात् अग्निकुमार देवों के मुकुट से उत्पन्न हुई अग्नि से उसे भस्म कर देते हैं। देव उस भस्म को निर्वाण का साधक मानकर अपने मस्तक, नेत्र, बाहु, हृदय और फिर सर्वांग में लगाते है तथा उस पवित्र भूमितल को निर्वाणक्षेत्र घोषित करते हैं। वीवच० १९.२३९-२४६ निर्वाणशिला-सुरासुरों से वन्दित सिद्ध-शिला । अनेक शोलधारी मुक्तात्मा इसी शिला से सिद्ध हुए हैं। अनन्तवीर्य योगीन्द्र ने इसी शिला के सम्बन्ध में कहा था कि जो उसे उठायेगा वही रावण को ___मार सकेगा। लक्ष्मण ने इसे उठाया था। पपु० ४८.१८५-२१४ निविघ्न-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२११ निविचिकित्सा सम्यग्दर्शन का तीसरा अंग। इसमें शारीरिक मैल से मलिन किन्तु गुणशाली योगियों के प्रति मन, वचन और काय से ग्लानि का त्याग किया जाता है। शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ दिया जाता है । मपु० ६३. ३१५-३१६, हपु० १८.१६५, वीवच० ६.६५ निविष्या-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । यहाँ भरतेश की सेना आयी थी। मपु० २९.६२ निर्वृति-(१) विद्याधर राजाओं के सोलह निकायों की विद्याओं में से एक विद्या । हपु० २२.६५ (२) निर्वाण । मपु० २.१४०, पपु० ४.१३० (३) क्षेमपुर नगर के सेठ सुभद्र की स्त्री, क्षेमसुन्दरी की जननी । - मपु० ७५.४१० निर्वृत्त-संगीत सम्बन्धी संचारी पद के छः अलंकारों में प्रथम अलंकार। मपु० २४.१७ निवृत्ति-(१) विजयाध पर्वत पर स्थित सिद्धायतनों (जिनमन्दिरों) की रक्षिका एक देवी । हपु० ५.३६३ (२) द्रव्येन्द्रिय का एक रूप। इसका दूसरा रूप उपकरण है। हपु० १८.८५ (३) एक आयिका। अरिंजयपुर के राजा अरिंजय और उसकी रानी अजितसेना की पुत्री प्रीतिमती ने उसके पास दीक्षा ली थी। हपु० ३४.३१ (४) तीर्थंकर पद्मप्रभ की शिविका । मपु० ५२.५१ निर्वेद-शरीर, भोग और संसार से विरक्ति । संसार नाशवान् है, लक्ष्मी चंचल है, यौवन, देह, नीरोगता और ऐश्वर्य. अशाश्वत है, ऐसे भाव निर्वेद में उत्पन्न होते है। मपु० १०.१५७, १७.११-१३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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