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________________ नरकान्तक-नरहरि नरकान्तक-नील कुलाचल के नो कूटों में छठा कूट । हपु० ५.१०० १९४ : जैन पुराणकोश दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दुःख सहते रहते हैं । खारा, गरम, तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गन्ध युक्त मिट्टी का आहार करते हैं। यहाँ गीध वज्रमय चोंच से और सुना कुत्ते नाखुनों से नारकियों के शरीर भेदते हैं। उन्हें कोल्हू में पेला जाता है, कड़ाही में पकाया जाता है, ताँबा आदि धातुएँ पिलायी जाती हैं, पूर्व जन्म में रहे मांस-भक्षियों को उनका मांस काटकर उन्हें ही खिलाया जाता है और तपे हुए गर्म लौह गोले उन्हें निगलवाये जाते है। पूर्व जन्म में व्यभिचारी रहे जीवों को अग्नि से तप्त पुतलियों का आलिंगन कराया जाता है। यहाँ कटीले सेमर के वृक्षों पर ऊपर-नीचे की ओर घसीटा जाता है और अग्नि-शय्या पर सुलाया जाता है। गर्मी से सन्तप्त होने पर छाया की कामना से वन में पहुँचते ही असिपत्रों से उनके शरीर विदीर्ण हो जाते हैं । पर्वत से नीच की ओर मुह कर पटका जाता है और घावों पर खारा पानी सींचा जाता है। तीसरी पृथिवी तक असरकुमार देव मेढा बनाकर परस्पर लड़ाते हैं और उन्हें तप्त लोहे के आसनों पर बैठाते है। आदि की चार भूमियों में उष्णवेदना, पाँचवी पृथिवी में उष्ण और शीत दोनों तथा छठी और सातवीं भूमि में शोत वेदना होती है । सातों पृथिवियों में क्रमशः तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच बिल है। इन नरकों में क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर और तेंतोस सागर उत्कृष्ट आयु है । पहली पृथिवी में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ छः अंगुल प्रमाण तथा द्वितीयादि पृथिवियों में क्रम-क्रम से दूनी होती गयी है । नारकी विकलांग, हुण्डक संस्थान, नपुसक, दुर्गन्धित, काले, कठोर स्पर्शवाले, दुभंग और कठोर स्वरवाले होते है। इनके शरीर में कड़वी तूम्बी और काजीर के समान रस उत्पन्न होता है । एक नारकी एक समय में एक ही आकार बना सकता है। आकार भी विकृत, घृणा का स्थान और कुरूप ही बना सकता है। इन्हें विभंगावधिज्ञान होता है। यहाँ हिंसक, मृषावादी चोर, परस्त्रीरत, मद्यपायो, मिथ्यादृष्टि, कर, रौद्रध्यानी, निर्दयी, वह्वारम्भी, धर्मद्रोही, अधर्मपरिपोषक, साधुनिन्दक, साधुओं पर अकारण क्रोधी, अतिशय पापी, मधु-मांसभक्षी, हिंसकपशुपोषी, मधुमासभक्षियों के प्रशंसक, क्रूर जलचर-थलचर, सर्प, सरीसृप, पापिनी स्त्रियाँ और क्रूर पक्षी जन्म लेते है। असैनी पंचेन्द्रिय जीव प्रथम पृथिवी तक, सरीसृप-दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी पृथिवी तक, सर्प चौथी पृथिवी तक, सिंह पाँचवों पृथिवी तक, स्त्रियाँ छठी पृथिवी तक और पापी मनुष्य तथा मच्छ सातवीं पृथिवी तक जाते हैं । मपु० १०.२२-६५, ९०-१०३, पपु० २.१६२, १६६, ६.३०६-३११, १४.२२-२३, १२३.५-१२, हपु० ४.४३-४६, ३५५-३६६, वीवच० १७.६५-७२ (२) रावण का एक योद्धा । पपु० ६६.२५ (३) धर्मा पृथिवी के तेरह इन्द्रक बिलों में दूसरा इन्द्रक बिल। हपु० ४.७६ दे० धर्मा नरकान्ता-चौदह महानदियों में दसवीं महानदी। यह केशरी सरोवर से निकलती है। मपु० ६३.१९६, हपु० ५.१२४, १३४ नरगीत-विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में तीसरा नगर । यहाँ स्त्री और पुरुष उत्सव आदि के द्वारा मनोरंजन करते रहते हैं। मपु० १९.३४ नरदेव-(१) कृष्ण के भाई बलदेव का एक पुत्र । हपु० ४८.६८ (२) रावण के पूर्वभव का जीव । धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र सम्बन्धी सारसमुच्चय देश के नागपुर (हस्तिनापुर) नगर का राजा। इसने एक दिन अनन्त गणधर से धर्मकथा सुनकर अपने बड़े पुत्र भोगदेव को राज्य सौंपकर संयम धारण कर लिया था। तपश्चरण करते हुए इसने चपलवेग विद्याधर के ऐश्वर्य को देखकर देव होने का निदान किया। फलतः आयु के अन्त में संन्यासमरण कर यह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। मपु० ६८.३-७ नरपति–तीर्थकर नेमिनाथ के तीर्थ में हुए राजा यदु का पुत्र । इसके दो पुत्र थे-शूर और सुवीर । यह अपने पुत्रों को राज्य सौंपकर तप करने लगा था। हपु० १८.७-८ (२) शिल्पपुर नगर का राजा, रतिविमला का पिता। मपु० ४७.१४४-१४५ (३) वासुपूज्य तीर्थकर के तीर्थ में हुआ एक नृप । उत्कृष्ट तपश्चरण करते हुए मरकर यह मध्यम अवेयक में अहमिन्द्र हआ था । मपु० ६१.८९-९० (४) तालपुर नगर का राजा, तीर्थकर मनिसुव्रतनाथ के यागहस्ती का जीव । यह पात्र-अपात्र की विशेषता से अनभिज्ञ था। यह किमिच्छक दान देने से हाथी हुआ था। मपु० ६७.३४-३५ नरपाल-चक्रवर्ती श्रीपाल और रानी सुखावती का पुत्र । राजा श्रीपाल ने इसे राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली थी। मपु० ४७.२४४-२४५ नरवक्त्र-आठवाँ नारद । हपु० ६०.५४९ दे० नारद नरवर-राजा वसु की वंश-परम्परा में हुआ एक नृप । यह राजा दृढ़रथ का पुत्र था । इसने अपने पिता के नाम पर ही पुत्र का भी नाम रखा था । हपु० १८.१८ नरवृषभ-जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व की ओर स्थित वीतशोकापुरी का राजा । राजभोगों को भोगकर और उनसे विरक्त होकर इसने दमवर मुनि से दीक्षा ले ली थी। उग्र तपश्चरण करते हुए मरकर यह सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ था । मपु० ६१.६६-६८ नरवृष्टि-शौर्यपुर नगर के राजा शूरवीर और उसकी पत्नी धारिणी का कनिष्ठ पुत्र । यह अन्धकवृष्टि का अनुज था । इसकी रानी का नाम पद्मावती था। इसके तीन पुत्र थे-उग्रसेन, देवसेन और महासेन । गान्धारी इसकी पुत्री थी। मपु० ७०.९३-९४, १००-१०१ नरहरि-कुरुवंशी एक राजा । यह नारायण के पश्चात् राजा हुआ था। हपु० ४५.१९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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