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________________ १८६ : जैन पुराणकोश धिक्कारते हुए स्त्रियों को जीवनहारिणी और पुत्रों को बेड़ी स्वरूप समझकर संसार के भोगों से विरक्त होकर गांगेय और द्रोण के सान्निध्य में पुत्रों को राज्य सौंप करके इसने दीक्षा ग्रहण कर ली थी । पापु० ९.२२६-२२७, १०.३-१६ घृतवीर्य - घृतेन्द्र के पश्चात् हुआ एक कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.१२ धृतभ्यास- कुरुवंशी राजा शान्तनु का पुत्र । हपु० ४५. ३१ धृति - (२) छः - जिनमातृक देवियों में एक देवी । यह जिनमाता के शरीर में अपने धैर्य गुण को स्थापित करती है । मपु० ३८.२२६ वीवच० ७.१०७-१०८ (२) राजा समुद्रविजय के भाई राजा अक्षोभ्य की रानी । हपु० १९.३ (३) तिगिछ सरोवर के शोभित भवनों में रहने वाली भवनवासिनी एक देवी । हपु० ५.१२१, १३० (४) उपकगिरि के सुदर्शनकूट की निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी । यह चमर लेकर जिनमाता की सेवा करती है । मपु० १२. १६३-१६४, ३८.३२२, पपु० ३.११२-११३, हपु० ५.७१७ (५) गर्भान्विय की त्रेपन क्रियाओं में चौथी क्रिया । यह गर्भ की वृद्धि के लिए गर्भ से सातवें मास में की जाती है। प्रथम क्रिया के समान इसमें भी पूजन आदि कार्य किये जाते हैं । मपु० ३८. ५५-८२ वृतिकर - (१) कुरुवंशी राजा शुभंकर का पुत्र ह० ४५.९ 1 (२) शुभंकर के पुत्र के अनेक सागर काल के पश्चात् हुए राजा धृतिदेव के बाद का एक कुरुवंशी नृप । हपु० ४५.१०-११ (३) कुरुवंशी राजा प्रीतिकर के पूर्व और धृतिद्युति के बाद हुआ एक नृप । हपु० ४५.१३ 1 धूतिकूट - निवधाचल के नौ कूटों में छठा कूट ह० ५.८९ धृतिक्षेम - कुरुवंशी एक राजा । कुरु के पश्चात् अनेक सागर काल बीतने पर तथा असंख्य कुरुवंशी राजाओं के पश्चात् धृतिमित्र नाम का राजा हुआ। इसके पश्चात् यह राजा हुआ । हपु० ४५.११ धृतिदृष्टि — धृतद्य ति का पूर्ववर्ती कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.१३ प्रतिदेव कुरुवंशी राजा इसके पूर्व असंख्य कुरुवंशी राजा हो गये थे। हपु० ४५.११ ति विभूतिदृष्टि के पचात् हुआ कुरुवंशी राजा हपु० ४५.१३ वृतिमित्र कुरुवंशी राजा यह गंगदेव के पश्चात् हुआ था ह ४५.११ धृतिषेण - ( १ ) तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् एक सौ बासठ वर्ष बाद एक सौ तिरासी वर्ष के काल में हुए दश पूर्व और ग्यारह अंग के धारी ग्यारह आचार्यों में सातवें आचार्य । मपु० २.१४३, ७६.५२१-५२४, हपु० १.६२-६३ (२) एक चारण ऋण द्विधारी मुनि । भरतक्षेत्र के नन्दनपुर नगर के राजा अमितविक्रम की धनश्री और अनन्तश्री पुत्रियों को इन्होंने बताया था कि उनकी मुक्ति भावी चौथे जन्म में हो जायगी । मपु० ६३.१२-२२, भातकीखण्ड में ऐरात्र के खपुर नगर के राजा --- Jain Education International घृतवीर्य - ध्यान राजगुप्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्यं प्राप्त किये थे । मपु० ६३.२४६-२४८ (३) सिंहपुर के राजा आर्यवर्मा का पुत्र । मपु० ७५.२८१ (४) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में वत्सकावती देश की पृथिवी नगरी के राजा जयसेन और रानी जयसेना का पुत्र । यह रतिषेण का सहोदर था । मपु० ४८.५८-५९ पुतिषेणा विजयार्थ उत्तरगी में बनकपुर नगर के राजा गडग की रानी । यह दिवितिलक और चन्द्रतिलक की जननी थी। मपु० ६३.१६४-१६६ धृतीश्वरा - राजा अन्धकवृष्टि के पुत्र राजा स्तिमितसागर की रानी । मपु० ७०.९५-९८ घृतेन्द्र -धूतपद्म के पश्चात् हुआ कुरुवंशी राजा । हपु० ४५, १२ धृतोदय - धृतधर्मा के पश्चात् हुआ कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.३२ घृष्टम्न - ( १ ) माकन्दी नगरी के राजा द्रुपद और रानी भोगवती का पुत्र, द्रौपदी का भाई । इसने कौरव दल के सेनापति द्रोणाचार्य को में असि प्रहार से मार डाला था । हपु० ४५.१२०-१२२, युद्ध पापु० १५.४१-४४, १९.२०३, २१६-२२०, २०.२३३ (२) यादवों का पक्षधर महारथ राजा । हपु० ५०. ७९ धृष्टार्जुन-कृष्ण का योद्धा । मपु० ७१ ७५ अपरनाम धृष्टद्युम्न । दे० घुष्टयुक्त - गोदावरी से आगे दक्षिण में बहनेवाली एक नदी इस नदी के पास के राजा को भरतेश की सेना ने अपने अधीन किया था । मपु० २९.८७ धैवत - संगीत का एक स्वर । हपु० १९.१५३ धैवती - संगीत के षड्ज स्वर से सम्बन्ध रखनेवाली एक जाति । हपु० १९.१७४ धौरित - अश्वों की एक जाति । मपु० ३१.३ ध्यातमहाधर्मा— सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५. १७३ ध्याता ध्यान करनेवाला मुनि। यह ववृषभनाराचसंहन शरीरभारी, तपस्वी, शास्त्राभ्यासी, आर्त और रौद्रध्यान तथा अशुभलेश्या से रहित होता है । यह राग-द्वेष और मोह को त्यागकर ज्ञान और वैराग्य की भावनाओं के चिन्तन में रत रहता है। यह चौदह, दश अथवा नौ पूर्व का ज्ञाता और धर्मध्यानी होता है। यह ध्यान के समय चित्तवृत्ति को स्थिर रखता है । मपु० २१.६३, ८५-१०२ ध्यान - शारीरिक निःस्पृहतापूर्वक किया गया अन्तिम आभ्यन्तर तप । इसमें तन्मय होकर चित्त को एकाग्र किया जाता है । यह वज्रवृषभनाराचसंहननवालों के भी अधिक से अधिक अन्त तक ही रहता है। योग समाधि धीरोष स्वान्तनिग्रह, अन्तता इसके पर्यायवाची नाम हैं । शुभाशुभ परिणामों के कारण इसके प्रशस्त और अप्रशस्त दो भेद हैं । इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं। इनमें प्रशस्त ध्यान के भेद हैं-धर्म और शुक्लध्यान तथा अप्रशस्त ध्यान के भेद हैंआर्त और रौद्र ध्यान। इन चारों में आर्त और रौद्र हेय हैं क्योंकि For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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