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________________ १८४ : जेन पुराणकोश अवायज्ञान द्वारा जानी गयी वस्तु का विस्मरण नहीं होता । हपु० १०.१४६ (२) शास्त्रों में जप के लिए बताये गये मन्त्रों के बीजाक्षरों का अवधारण करना । मपु० २१.२२७ (३) तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के समवसरण की मुख्य आर्थिका । मपु० ५७.५८ धारणी - विजयार्धं की उत्तरश्रेणी को इक्यावनवीं नगरी । मपु० १९.८५ धारागृह - भरतेश चक्रवर्ती का ताप विनाशी स्नानगृह । मपु० ८.२८, ३७.१५० धारिणी (१) सहकारिणी एक औषध विद्या यह मन्त्रों से परिष्कृत होती है । धरणेन्द्र ने यह विद्या नमि और विनमि को दी थी । हपु० २२.६८-७३ (२) पश्चिम पुष्करा के पश्चिम विदेह क्षेत्र में विजया की उत्तरश्रेणी में गण्यपुर नगर के राजा सूर्याभ की रानी यह चिन्तागति, मनोगति, और चपलगति विद्याधरों की जननी थी । मपु० ७०. २७-३०, हपु० ० ३४.१५-१७ (३) अयोध्या नगरी के समुद्रदत्त सेठ की स्त्री, पूर्णभद्र और मणिभद्र की जननी । पपु० १०९.१२९-१३०, हपु० ४३.१४८ - १४९ (४) मेश्वत श्रेष्ठी की भा० ४६.११२ (५) महापुर नगर के मेह सेठ की स्त्री पद्म-चि की जननी । इसके पुत्र ने एक मरते हुए बैल को णमोकार मन्त्र सुनाया था जिसके फलस्वरूप वह मरकर महापुर में ही राजा छत्रच्छाय का वृषभध्वज नाम का पुत्र हुआ । पपु० १०६.३८ ४३, ४८ (६) पद्मिनी नगरी के राजा विजयपर्वत की रानी । पपु० ३९.८४ (७) चक्रवर्ती भरतेश की रानी, पुरूरवा भील के जीव मरीचि की जननी । वीवच० २.६४-६९ (८) हरिवंशी राजा सूरसेन के पुत्र राजा वीर की रानी, अन्धकवृष्टि और नरवृष्टि की जननी । मपु० ७०.९२-९४ (९) रत्नद्वीप के मनुजोदय पर्वत पर स्थित रमणीक नगर निवासी विद्याधर गरुड़वेग की पत्नी, गन्धर्वदत्ता की जननी । मपु० ७५. ३०२-३०४ (१०) विजया की अलका नगरी के राजा हरिबल की प्रथम रानी, भीमक की जननी । मपु० ७६. २६२-२६४ (११) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुरदेव की रानी । यह मरकर अच्युत स्वर्ग के प्रतीन्द्र की देवी हुई । मपु० ४६.३५२ धार्मिकी— कौशाम्बी नगरी के श्रेष्ठी सुमति और उसकी भार्या सुभद्रा की पुत्री । मपु० ७१.४३७ धिक् - आरम्भिक दण्ड-व्यवस्था का तीसरा भेद । धिक्कार हैं, आरम्भ में आदि के पाँच कुलकरों ने केवल "हा" इस दण्ड की व्यवस्था की थी, इनके आगे पाँच कुलकरों ने "हा" और "मा" दो प्रकार के दण्ड रखे थे, किन्तु अन्तिम पाँच कुलकरों को उक्त द्विविध दण्ड Jain Education International धारणी-भा व्यवस्था में धिक् को भी संयोजित करना पड़ा था। अब अपराधियों से कहा जाता था कि खेद है, अब ऐसा नहीं करना और तुम्हें धिक्कार है जो रोकने पर भी अपराध करते हो । मपु० ३.२१४ २१५ विषण - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७९ घी- ( १ ) छः जिन मातृक देवियों (श्री, ह्री, घी, धृति, कीर्ति और लक्ष्मी में तीसरी देवी । ये कुलाचलों पर निवास करती हैं । मपु० ३८.२२६ (२) सूर्योदय नगर के निवासी राजा शक्रधनु की रानी । हरिषेण चक्रवर्ती की रानी जयचन्द्रा इसी की पुत्री थी । पपु० ८.३६२-३६३, ३७१ धीन्द्र - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१४८ धीमान् (१) देव का पुत्र ह० ४८.६७ 1 (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७९ धीर--( १ ) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१८२ (२) तीर्थकर मल्लिनाथ के पूर्वभव का पिता । पपु० २०.२९-३० (३) कृष्ण का पुत्र । हपु० ४८.७० घोरधी - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.२१२ धीश -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४१ धीश्वर - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०९ धुर्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५९ धूपघट -- समवसरण की नाट्शालाओं के आगे वीथियों के दोनों ओर धूपधूम्र से युक्त पात्र । मपु० २२.१५६-१५८ धूमकेतु - (१) विभंगावविज्ञानी एक असुर इसका विमान रुक्मिणी के महल पर रुक गया। को जानने के लिए वह इस महल में गया । वहाँ के वैरी शिशु प्रद्युम्न को देखा । वैरवश उसने रुक्मिणी को महानिद्रा में निमग्न कर दिया और उस शिशु को उठाकर ले गया तथा खदिर अटवी में तक्षशिला के नीचे दबाकर चला गया । हपु० १.१०० ४३. ३९-४८, पूर्वभव में प्रद्युम्न के जीव मधु ने इसके पूर्वभव के जीव राजा वीरसेन की स्त्री को अपनी स्त्री बना लिया था। पूर्वभव के इस वैर के फलस्वरूप इस भव में इसने मधु के जीव प्रद्युम्न को मार डालने की इच्छा से तक्षक शिला के नीचे दबाया था। इसका अपरनाम धूम्रकेतु था । मपु० ७२.४० ५३ हपु० ४३.२२०-२२२ आकारमार्ग से जाते हुए गतिरोध के कारण उसने अपने पूर्वभव (२) दीखते ही अदृश्य हो जानेवाला अमंगल का सूचक एक ग्रह । हपु० ४३.४८ इसका रूढ़ नाम अरिष्टा है । धूमकेश - चक्रपुर नगर के राजा चक्रध्वज का पुरोहित । यह स्वाहा नामा स्त्री का पति और पिंगल का पिता था । पपु० २६.४-६ धूमप्रभा - नरक की पांचवीं पृथिवी । इसकी मोटाई बीस हजार योजन है। इसमें तीन लाख बिल तथा नगरों के आकार में तम, भ्रम, इष, अर्त और तामिस्र नाम के पाँच इन्द्रक बिल हैं । मपु० १०.३१, हपु० ४.४४-४६, ८३ इन इन्द्रक बिलों की चारों महादिशाओं और विदिशाओं में श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या इस प्रकार है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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