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________________ जैन पुराणकोश अंक-(१) नौ अनुदिश विमानों में आठवां विमान । हपु० ६.६४ दे० अनुदिश-१ (२) रुचकवर द्वीप के रुचकवर पर्वत का उत्तरदिशावर्ती दूसरा कट । यहाँ मिश्रकेशी देवी रहती है । इप०५.७१५ दे० रुचकवर-२ अंककूट-(१) मानुषोत्तर पर्वत का उत्तरदिशावर्ती एक कूट । यह मोधदेव की निवास-स्थली है । हपु० ५.५९९,६०६ (२) कुण्डलवर द्वीप के मध्य में स्थित कुण्डलगिरि का पश्चिम दिशावर्ती प्रथम कूट । यह स्थिर हृदय देव की निवासभूमि है । हपु० ५.६८६,६९३ दे० कुण्डलगिरि अंकप्रभ-कुण्डलवर द्वीप के मध्य में स्थित कुण्डलगिरि के पश्चिमदिशावर्ती चार कूटों में दूसरा कूट । यह महाहृदय देव की निवास भूमि है । हपु० ५.६८६,६९३ अंकवतो-पूर्व विदेहक्षेत्र की नगरी । यह रम्या देश की राजधानी थी। इसे अंकावती भी कहा जाता था। मपु० ६३.२०८, २१४ हपु० ५.२५९ अंकविद्या-वृषभदेव द्वारा अपनी पुत्री सुन्दरी को सिखायी गयी गणित विद्या । मपु० १६. १०८ अंकावती-अंकवती नगरी का अपर नाम । हपु० ५.२५९ दे० अंकवती अंकुर-(१) रावण के राक्षसवंशी राजाओं के साथ युद्ध करने के लिए तत्पर वानरवंशी नृप । पपु० ६०.५-६ (२) जल-आर्द्रता, पृथिवी का आधार, आकाश का अवगाहन, वायु का अन्तर्नीहार और धूप की उष्णता पाकर हुई बीज की भूमि-गर्भ से बाहर निकलने की आरम्भिक स्थिति । मपु० ३.१८०-१८१, ५.१८ अंग-(१) श्रत । मूलतः ये ग्यारह कहे गये हैं-१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग ६. ज्ञातृधर्मकथांग ७. उपासकाध्ययनांग ८. अन्तकृद्दशांग ९. अनुत्तरोपपादिकदशांग १०. प्रश्नव्याकरणांग और ११. विपाकसूत्रांग। इनमें दृष्टिवादांग को सम्मिलित करने से ये बारह अंग हो जाते हैं। मपु० ६.१४८,५१,१३, हपु० २.९२-९५ (२) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक देश । इसकी रचना स्वयं इन्द्र ने की थी। वृषभदेव और महावीर ने विहार कर यहाँ धर्मोपदेश दिये थे। मपु० १६.१५२-१५६, २५.२८७-२८८, पापु० १.१३२- १३४ (३) रत्नप्रभा नरकभूमि के खरभाग का बारहवां पटल । हपु० ४.५२-५४ दे० खरभाग (४) तालगत गान्धर्व का एक भेद । हपु० १९.१४९-१५२ (५) सुग्रीव का ज्येष्ठ पुत्र, अंगद का अग्रज और राम के पुत्रों का सहायक योद्धा । राम-लक्ष्मण और राम के पुत्रों के बीच हुए युद्ध में इसने लवणांकुश के सहायक सेनानायक वनजंघ का साथ दिया था। पपु० १०.१२, ६०.५७-५९, १०२.१५४-१५७ (६) प्राणियों के अंगोपांग के स्पर्श अथवा दर्शन द्वारा उनके सुख दुःख के बोधक अष्टांगनिमित्तशान का एक भेद । मपु० ६२.१८१, १८५, हपु० १०.११७, दे० अष्टांगनिमित्तज्ञान अंगज-(१) भविष्यकालीन ग्यारहवां रुद्र । हपु० ६०.५७१ दे० रुद्र (२) कामदेव । हपु० १६.३९ अंगव-(१) स्त्री-पुरुष दोनों के द्वारा प्रयुक्य बाहओं का आभूषण । मपु० ३.२७, ७.२३५, ११.४४ ।। (२) इस नाम का एक राजा । इसने कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में कृष्ण का पक्ष लिया था। हपु० ७१. ७३-७७ (३) सुग्रीव और सुतारा का दूसरा पुत्र, अंग का छोटा भाई । यह राम का पराक्रमी योद्धा था। पपु० १०.११-१२, ५८.१२-१७ रावण के योद्धा मय के साथ इसने युद्ध किया था । पपु० ६२.३७ लंका जाकर इसने साधना में लीन रावण पर उपसर्ग किये थे और रावण की रानियों को सताया था । पपु० ७१.४५-९३ यह अनेक विद्याओं से युक्त था, विद्याधरों का स्वामी था, राम का मंत्री था और मायामय युद्ध करने में प्रवीण था। रावण के पक्षधर इन्द्र केतु के साथ इसने भयंकर युद्ध किया था। मपु० ६८.६२०-६२२, ६८३, पपु० ५४.३४ ३५ । अंगप्रविष्ट-श्रुत का प्रथम भेद-यह गणधरों द्वारा सर्वज्ञ की वाणी से रचा गया श्रुत है। यह ग्यारह अंग और चौदह पूर्व रूप होता है । हपु० २.९२-१०१ दे० अंग और पूर्व अंगबाह्य-श्रुत का दूसरा भेद-यह गणधरों के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा रचित श्रुत है। इसके चौदह भेद हैं-१. सामायिक २. जिनस्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. वैनयिक ६. कृतिकर्म ७. दशवकालिक ८. उत्तराध्ययन ९. कल्पव्यवहार १०. कल्पाकल्प ११. महाकल्प १२. पुण्डरीक १३. महापुण्डरीक और १४. निषद्यका । हपु० २१.१०११०५ इसका अपरनाम प्रकीर्णक श्रुत है । इसमें आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर अक्षर, एक करोड़ तेरह हजार पाँच सौ इक्कीस पद तथा पच्चीस लाख तीन हजार तीन सौ अस्सी श्लोक हैं । हपु० १०.१२५-१३६ अंगसौन्दर्य पारिवाज्य क्रिया के सत्ताईस सूत्र पदों में चौथा पद । इसका इच्छुक मुनि निज शरीर-सौन्दर्य को म्लान करता हुआ कठिन तप करता है । मपु० ३९.१६२-१६५, १७२ अंगहाराश्रय-नृत्य के अंगहाराश्रय, अभिनयाश्रय और व्यायामिक इन तीन भेदों में प्रथम भेद। केकया इन तीनों को जानती थी। पपु० २४.६ अंगार-(१) चण्डवेग विद्याधर से पराजित एक विद्याधर । हपु० २५.६३ (२) आहार-दाता के चार दोषों में दूसरा दोष । हपु० ९.१८८ दे० आहारदान अंगारक-(१) भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा में स्थित एक देश । हपु० ११.६८ (२) विजयार्द्ध पर्वत पर स्थित किन्नरोद्गीत नगर के निवासी ज्वलनवेग विद्याधर और उसकी रानी विमला का पुत्र, अशनिवेग का भतीजा। इसके पिता ने अपना राज्य इसे न देकर अपने छोटे Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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