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________________ दशानन १६२ : जैन पुराणकोश मण्डन हाथी पर विजय प्राप्त कर अपना अभूतपूर्व पौरुष प्रदर्शित किया था। पपु० ८.२३७-२३९, २५३, ४२६-४३२ खरदूषण के द्वारा अपनी बहिन चन्द्रनखा का अपहरण होने पर भी बहिन के भविष्य का विचार कर यह शान्त रहा और इसने खरदूषण से युद्ध नहीं किया । इसने बाली को अपने आधीन करना चाहा था किन्तु बाली ने जिनेन्द्र के सिवाय किसी अन्य को नमन न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी। प्रतिज्ञा-भंग न हो और हिंसा भी न हो एतदर्थ वह मुनि जगचन्द्र के पास दीक्षित हो गया था। बाली के भाई सुग्रीव ने अपनी श्रीप्रभा बहिन देकर इससे सन्धि कर ली थी। इसने नित्यालोक नगर के राजा की पुत्री रत्नावली से भी विवाह किया था। अपने पुष्पक विमान की गति रुकने का कारण बाली को जानकर यह क्रोधाग्नि से जल उठा था। इसने बाली सहित कैलास पर्वत को उठाकर समुद्र में फेंकना चाहा था, कैलास इसके बल से चलायमान भी हो गया था। जिनमन्दिरों की सुरक्षा हेतु कैलास को सुस्थिर रखने के लिए बाली ने अंगठे से पर्वत को दबाया था। इससे उत्पन्न कष्ट से इसने इतना चीत्कार किया था कि समस्त नगर चीत्कार के उस महाशब्द से रोने लगा । कालान्तर में जगत् को रुला देनेवाले इसी चीत्कार के कारण उसे रावण इस नाम से अभिहित किया जाने लगा। यह शत्रुओं को रुलाता था इसलिए भी रावण कहलाया । मन्दोदरी द्वारा पति-भिक्षा की याचना करने पर मुनि ने दयावश पैर का अंगूठा ढीला किया था। तब इसने मुनि बाली से क्षमा याचना की थी। इसने भक्ति विभोर होकर सैकड़ों स्तुतियों से जिनेन्द्र का गुणगान किया था। इससे प्रसन्न होकर नागराज ने इससे वर मांगने के लिए कहा किन्तु जिन-वन्दना से अन्य कोई उत्कृष्ट वस्तु मांगने के लिए इसे इष्ट न हुई। अतः इसने पहले तो मना किया किन्तु बाद में विशेष आग्रह पर नागराज द्वारा दी अमोघ विजया शक्ति ग्रहण की थी। मपु० ६८.८५, पपु० ९.२५-२१५ सहस्ररश्मि को पकड़कर उसके पिता शतबाह के निवेदन पर उसे इसने छोड़ दिया था। पपु०१०. १३०-१३१, १३९-१५७ राजा मरुत् की कन्या कनकप्रभा इसी ने विवाही थी । पपु० ११.३०७, मथुरा के राजा मधु के साथ अपनी पुत्री कृतचित्रा का विवाह कर इसने नलकूबर की पत्नी उपरम्भा से आशालिका नामक विद्या प्राप्त की थी। नलकूबर को जीत कर इसने उससे सुदर्शन नामक चक्ररत्न प्राप्त किया था। पपु० १२.१६-१८, १३६-१३७, १४५ इसने अनन्तबल केवली से "जो पर स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूंगा" यह नियम लिया था। पपु. १४.३७१ सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से दशरथ के पुत्र और जनक की पुत्री को अपने मरण का हेतु ज्ञातकर रावण ने दशरथ और जनक को मारने के लिए विभीषण को आज्ञा दी थी। नारद से यह समाचार जानकर दशरथ और जनक नगर से बाहर चले गये थे। इधर समुद्रहृदय मंत्री ने दशरथ की मूर्ति बनवाकर सिंहासन पर रख दी थी। विभीषण के भेजे वीरों ने इस मूर्ति को दशरथ समझकर उसका शिरच्छेद कर दिया था। विभीषण ने शिर को पाकर सन्तोष कर लिया था। पपु० २३.२५-२७, ४०-४३, ५४-५६ एक समय यह अमितवेग की पुत्री मणिमती को देखकर कामासक्त हो गया था। मणिमती विद्या सिद्ध कर रही थी। इसके विघ्न उत्पन्न करने पर उसने निदान किया था कि इसी को पुत्री होकर वह इसके वध का कारण बनेगी । फलस्वरूप वह मन्दोदरी के गर्भ में आयी । जन्मते ही एक संदूकची में बन्द कर मिथिला के निकट किसी प्रकट स्थान में जमीन के भीतर छोड़ी गयी जो राजा जनक को प्राप्त हुई। इसके पालन पोषण के समाचार इसे प्राप्त नहीं हो सके थे। इसका नाम सीता रखा गया था। मपु० ६८.१३-२८ स्वयंवर में सीता ने राम का वरण किया था। पपु० २८.२३६, २४३-२४४ नारद से इसने सीता की प्रशंसा सुनकर उसे अपने पास लाने का निश्चय किया था। पहले तो सीता को लाने के लिए इसने शूर्पनखा को उसके पास भेजा था किन्तु उसके विफल होने पर यह स्वयं गया । इसने मारीच को हरिण-शिशु के रूप में सीता के पास भेजा, सीता के कहने पर राम हरिण को पकड़ने चले गये । इधर राम का रूप धरकर यह सीता के पास आया औप उसके मन में व्यामोह उत्पन्न करके उसे हर ले गया। मपु० ६८.८९-१०४, १७८, १९३, १९७-१९९, २०४-२०९ जटायु ने शक्तिभर विरोध किया था किन्तु उसे मारकर यह सीता को हरने में सफल रहा। साधु से लिए नियम का इसने पालन किया था। सीता के न चाहने पर बलपूर्वक इसने उसे ग्रहण नहीं किया । पपु० ४४.७८-१०० अर्कजटी के पुत्र रत्नजटी के विरोध करने पर इसने उसकी आकाशगामिनी विद्या छीन ली थी । पपु० ४५.५८-६७ मन्दोदरी ने इसे समझाया था किन्तु इसने नियम का ध्यान दिलाकर सीता को समझाने के लिए उसे ही प्रेरित किया था। पपु० ४६.५०-६९ विभीषण ने इससे सीता लौटाने के लिए निवेदन किया जिससे वह विभीषण को भी मारने के लिए तलवार निकाल खड़ा हो गया था । अन्त में विभीषण राम से जा मिला । पपु० ५५.१०-११, ३१, ७१७२ युद्ध में इसने शक्ति के द्वारा लक्ष्मण का वक्षःस्थल खण्डित किया था। इससे दुःखी होकर राम ने इसे छः बार रथ रहित तो किया किन्तु इसे वे जीत नहीं सके थे। पपु० ६२.८१-८२, ९० द्रुपद की पुत्री विशल्या को बुलवाया गया। विशल्या के समीप पहुँचते ही लक्ष्मण से शक्ति हट गयी थी । पपु० ६५.३८-३९ अजेय होने के लिए चौबीस दिन में सिद्ध होनेवाली बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने हेतु इसे ध्यानस्थ देखकर राम के सैनिक इसे क्रोधित करना चाहते थे। राम के निषेध पर नप-कुमारों ने लंका के निवासियों को भयभीत कर दिया । पपु० ७०.१०५, ११.३६-४३ अंगद के विविध उपसर्ग करने पर भो यह ध्यानस्थ रहा, विद्या सिद्ध हुई। पपु० ७१.५२-८६ मन्दोदरी के समझाने पर इसने अपनी निन्दा तो अवश्य की किन्त वह सीता को बापिस नहीं करना चाहता था । पपु० ७३.८२-८४, ९३-९५ अन्त में इसका लक्ष्मण के साथ दस दिन तक युद्ध होने के बाद इसे बहुरूपिणी विद्या का प्रयोग करना पड़ा । इसमें भी जब वह सफल नहीं हुआ तब इसने चक्ररल लक्ष्मण पर चलाया, लक्ष्मण अबाधित रहा । पपु० ७५. ५, २२, ५२-५३, ६० चक्ररत्न प्राप्त कर लक्ष्मण ने मधुर शब्दों में इससे कहा था कि वह सीता को वापिस कर दे और अपने पद पर Jain Education 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SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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